ब्रह्मांड का सबसे बड़ा रहस्य सुलझा: जेम्स वेब टेलीस्कोप ने खोजे ‘मॉन्स्टर स्टार्स’, सूर्य से 10 हजार गुना भारी थे ये आदिम तारे

वॉशिंगटन: ब्रह्मांड की उत्पत्ति और उसके शुरुआती स्वरूप को समझने में जुटे वैज्ञानिकों को जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (JWST) के जरिए एक ऐतिहासिक कामयाबी हाथ लगी है। वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष में उन विशालकाय आदिम तारों के पक्के सबूत मिल गए हैं, जिन्हें खगोल विज्ञान की दुनिया में ‘मॉन्स्टर स्टार्स’ या राक्षस तारे कहा जाता है। इस खोज ने पिछले दो दशकों से चली आ रही उस खगोलीय पहेली को सुलझा दिया है जिस पर अब तक केवल कयास लगाए जा रहे थे। माना जाता है कि इन आदिम तारों में से प्रत्येक का वजन हमारे सूर्य से 1,000 से लेकर 10,000 गुना तक ज्यादा रहा होगा और ये बिग बैंग के महज कुछ सौ मिलियन साल बाद ही अस्तित्व में आ गए थे। अब इन तारों की मौजूदगी महज कोरी कल्पना नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक हकीकत बन गई है।
इस क्रांतिकारी खोज के लिए हार्वर्ड एंड स्मिथसोनियन सेंटर फॉर एस्ट्रोफिजिक्स और पोर्ट्समाउथ विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक संयुक्त रिसर्च की है, जिसे ‘द एस्ट्रोफिजिकल जर्नल लेटर्स’ में प्रकाशित किया गया है। रिसर्च टीम ने जेम्स वेब टेलीस्कोप की मदद से सुदूर ब्रह्मांड में स्थित आकाशगंगा ‘जीएस 3073’ (GS-3073) का अध्ययन किया। वैज्ञानिकों ने पाया कि इस आकाशगंगा के अंदर नाइट्रोजन और ऑक्सीजन का एक बेहद खास अनुपात (0.46) मौजूद है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, यह बढ़ा हुआ नाइट्रोजन स्तर एक ‘रासायनिक निशान’ की तरह है, जो मजबूती से इशारा करता है कि पुराने समय में यह आकाशगंगा विशालकाय तारों से भरी हुई थी। पोर्ट्समाउथ विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डैनियल व्हेलन का कहना है कि जीएस 3073 आकाशगंगा के साथ अब उनके पास इन विशाल तारों के अस्तित्व का पहला सीधा और ठोस सबूत है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि यह खोज यह समझने में भी मदद करेगी कि ब्रह्मांड के शुरुआती दौर में ‘महाविशाल ब्लैक होल’ (Supermassive Black Holes) इतनी जल्दी कैसे बन गए थे। इन विशाल तारों के जीवन चक्र को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर सिमुलेशन का सहारा लिया। मॉडलों से पता चला कि ये ‘मॉन्स्टर स्टार्स’ अपने केंद्र में हीलियम गैस को जलाकर कार्बन बनाते हैं। इसके बाद ‘CNO चक्र’ नामक प्रक्रिया के जरिए यह कार्बन हाइड्रोजन के साथ मिलकर नाइट्रोजन में बदल जाता है। संवहन धाराओं (Convection Currents) के जरिए यह नाइट्रोजन तारे की सतह पर आती है और फिर अंतरिक्ष में फैलकर एक ऐसा ‘केमिकल इंप्रिंट’ छोड़ जाती है जो अरबों साल तक बना रहता है।
स्विस नेशनल साइंस फाउंडेशन के वैज्ञानिक देवेश नंदाल ने इस खोज को एक ‘ब्रह्मांडीय फिंगरप्रिंट’ करार दिया है। उनका कहना है कि जीएस 3073 आकाशगंगा में पाया गया रासायनिक पैटर्न किसी भी सामान्य तारे से मेल नहीं खाता। वहां मौजूद नाइट्रोजन की अत्यधिक मात्रा केवल एक ही स्रोत की ओर इशारा करती है, और वह है सूर्य से हजारों गुना विशाल आदिम तारे। इस अध्ययन ने यह साबित कर दिया है कि तारों की पहली पीढ़ी में वास्तव में अकल्पनीय आकार वाले विशाल पिंड शामिल थे, जिन्होंने आज के ब्रह्मांड की नींव रखी।

