लखनऊ

दीप केवल घर में उजाला नहीं करता, अपितु वह हमारे मन को, आत्मा को भी प्रकाशित करता है

भारतीय संस्कृति में दीप का महत्त्व हम सभी जानते हैं।, वह भीतर से प्रफुल्लित करता है, अनेक विकारों को दूर कर स्वस्थ बनाता है और सकारात्मक सोच विकसित करता है। हम रचना की ओर प्रवृत्त होते हैं। लोगों को जोड़ते हैं, लोगों से जुड़ते हैं। और हम इस सांसारिक उजाले से परे जब ‘अत्त दीपो भव’ के उजाले को जागृत कर लेते हैं तब हम वह सब देखने लगते हैं, जो पहले छूट गया होता है। हमको दुनिया के सारे रंग दिखने लगते हैं, जो प्रकाश से ही सम्भव है और इसके लिए हम सबसे पहले भौतिक दुनिया में अपने आस-पास के उजाले की ओर देखते हैं,

जो हमारी दिनचर्या में सम्मिलित होता है। अर्थात मिट्टी से हमारे स्वयं के बनाए हुए ‘दीप’ से प्राप्त उजाला, इस दीप को हम ‘ढिबरी’ भी कहते हैं। दरअसल लालटेन, लैम्प अथवा बिजली की सहज उपलब्धता के पहले गाँव-देहात के घरों में मिट्टी की ‘ढिबरी’ प्रयोग में लायी जाती थी, जिसमें केरोसिन ऑयल (जिसे मिट्टी का तेल या घासलेट भी कहा जाता है) डालकर कपड़े के लत्ते या सन की बत्ती जलाकर प्रकाश प्राप्त किया जाता था, दिनचर्या के बहुतेरे काम किए जाते थे। इनसे उजेरा ही नहीं फैलता था बल्कि आस भी बँधती थी। इससे पहले मिट्टी के दीये प्रयोग में लाए जाते थे, जिनमें सरसों का तेल और कपास की बत्ती प्रयोग में लायी जाती थी। कुछ समय बाद ‘ढिबरी’ काँच की भी बनने लगी। ‘ढिबरी’ की अनुपलब्धता में काँच की बोतल या टिन की डिब्बी में उसके मुँह पर लत्ते/ नाड़े या कपास अथवा सन की बत्ती लगाकर भी प्रकाश प्राप्त किया जाता था।

यही ‘ढिबरी’ इस अखिल भारतीय कला प्रदर्शनी का शीर्षक है। इसके दो महत्त्वपूर्ण कारण हैं- एक यह कि दीप या किसी भी प्रकार का उजाला रचनाकारों को सदैव आकर्षित करता रहा है। रचनाकारों ने उजाले से देश-काल-परिस्थिति के अनुसार उत्प्रेरित हो अनेक विधाओं में महत्त्वपूर्ण रचनाएँ दी हैं। एक समय में तो बंगाल कला में ‘दीए’ के साथ नायिकाओं का चित्रण आम बात थी। अबनीन्द्रनाथ टैगोर का ‘फेस्टिवल ऑफ लैम्प’, अब्दुर्रहमान चुग़तई का ‘दीपक जलाते हुए नायिका’ या बद्रीनाथ आर्य का ‘बजरे पर रात’ हम सबके मन-मस्तिष्क पर अंकित है। बॉम्बे स्कूल के प्रख्यात कलाकार सावलाराम लक्ष्मण हलदणकर की ‘दीपक के साथ नायिका’ तो यथार्थवादी कला का अद्भुत उदाहरण है ही। इस प्रदर्शनी में भी अनेक कलाकारों ने उजाले और उसके विभिन्न माध्यमों को अपने कौशल और रचनात्मकता के आधार पर सुन्दर एवं सार्थक संयोजनों के साथ प्रस्तुत किया है।

इस प्रदर्शनी के ‘ढिबरी’ शीर्षक का दूसरा औचित्य यह है कि हम सब दीपोत्सव के महापर्व का स्वागत करने के लिए उद्यत हैं, जो पूरी दुनिया को ऊर्जा, उल्लास और ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशमय और विजयी भाव से उल्लसित होने का संदेश देता है। हर रचनाकार इस पर्व को अपने-अपने ढंग से मनाता है और अपनी क्षमतानुसार परिवार, समाज और दुनिया में कुछ जोड़ता है, जुड़ता है। इसीलिए नागर संस्कृति में पल रही नई पीढ़ी को इस ज्ञान और आशा की प्रतीक ‘ढिबरी’ और उससे जुड़ी संस्कृति से जोड़ने के लिए प्रस्तुत है यह अखिल भारतीय प्रदर्शनी ‘ढिबरी’ जो एक ऐसी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है जहाँ हम सब एक दूसरे के होते हैं, पूरा गाँव, पूरा समाज एक परिवार होता है, वहाँ एक दूसरे से एक दूसरे का नाता होता है, सब एक दूसरे के काका, दादा, बाबा, भतीजे, नाती, पोते, मौसी, मामी, भाभी, बुआ होते हैं और पूरा गाँव किसी का नाना, मामा और जीजा और दामाद होता है।

वहाँ नए अन्न आने पर ‘नवा’ मनाया जाता है। सब नए अनाज से बने भोजन को खाकर उत्सव मनाते हैं। एक दूसरे को यथायोग्य प्रणाम करते हैं और आशीर्वाद देते हैं। सम्बन्धों में आई कड़वाहट को भूलकर रिश्तों में एक नई गर्माहट पैदा करते हैं। ‘ढिबरी’ उस संस्कृति का प्रतीक है जहाँ गाँव के सारे लोग मिलकर किसी का छप्पर उठाते हैं और किसी के शादी-विवाह में अपने गाँव, अपने समाज के सम्मान को बनाए रखने के लिए अपने घर के बिस्तर-चारपाई, राशन-बर्तन और समस्त आवश्यक संसाधन भी उपलब्ध करा देते हैं।

आज भी संध्याकाल आते ही ‘ढिबरी’ पूरे घर में या कहें तो बहुतों की दुनिया में अपनी रोशनी बिखरने लगती है। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई हो या रसोई में भोजन बनाना हो अथवा घर के अन्य कामकाज हों, ‘ढिबरी’ सहारा है। यह दीपोत्सव का समय चल रहा है, भला हम सब उस ‘ढिबरी’ को कैसे भूल सकते हैं, जिसके उजाले में रातों-रात बैठकर हमारे बाप-दादा और हम सब ने अपने बहुरंगी भविष्य के सपने बुने थे। आज बिजली के बल्ब, सीएफएल, एलईडी और अब न जाने क्या-क्या आया है और आएगा, पर हमारी पीढ़ी या गाँव में गुजर बसर कर रहे लोग आज भी ‘ढिबरी’ को जानते, पहचानते और अपने जीवन में सम्मिलित कर प्रसन्न होते हैं। ‘कला दीर्घा’ अन्तरराष्ट्रीय दृश्यकला पत्रिका और ‘कला स्रोत कला वीथिका’ द्वारा आयोजित इस प्रदर्शनी में हम सब ढिबरी के उजाले, उत्साह और उज्ज्वल भविष्य की आशाएँ महसूस करेंगे।

‘कलादीर्घा’ भारतीय कलाओं के विविध स्वरूपों का दस्तावेजीकरण और उसके प्रसार के उद्देश्य से सन 2000 में स्थापित, दृश्य कलाओं की अन्तरदेशीय कला पत्रिका है, जो अपनी उत्कृष्ट कला-सामग्री और सुरुचिपूर्ण-कलेवर के कारण सम्पूर्ण कलाजगत में महत्त्वपूर्ण पत्रिका के रूप में दर्ज की गई है। अपने स्थापनावर्ष से लेकर आज अपनी यात्रा के रजत जयन्ती वर्ष में प्रवेश करने तक पत्रिका ने उत्साहपूर्वक लखनऊ, पटना, भोपाल, जयपुर, बंगलोर, नई दिल्ली, लंदन, बर्मिंघम, दुबई, मस्कट आदि महानगरों में अनेक कला-गतिविधियों का उल्लेखनीय आयोजन किया है और आगे भी सोल्लास निर्वहन करती रहेगी। पत्रिका ने समय-समय पर वरिष्ठ कलाकारों के कलाअवदान का सम्मान करते हुए युवा कलाकारों को अपनी अभिव्यक्ति और नित नए प्रयोगों को कलाप्रेमियों के समक्ष प्रदर्शित करने का अवसर प्रदान किया है। हाल में ही आयोजित कला प्रदर्शनी ‘हौसला’, ‘वत्सल’ और ‘समर्पण’ के उपरान्त आज फिर ‘ढिबरी’ प्रदर्शनी के साथ उपस्थित है।

इस प्रदर्शनी का उद्घाटन 25 अक्टूबर को सायं 5 बजे मुख्य अतिथि सुरेन्द्र कुमार तिवारी, अपर शिक्षा निदेशक, माध्यमिक शिक्षा और विशिष्ट अतिथि श्रीमती शांत्वना तिवारी, संयुक्त शिक्षा निदेशक, सर्व शिक्षा अभियान, माध्यमिक शिक्षा द्वारा किया जाएगा। देश के विभिन्न क्षेत्रों से सहभाग कर रहे कुल 41 कलाकारों में पाँच आमंत्रित कलाकार डॉ अवधेश मिश्र, डॉ रतन कुमार, हेमराज, साबिया, रवि कान्त पाण्डेय और समन्वयकद्वय डॉ अनीता वर्मा और सुमित कुमार के साथ अनिल शर्मा, अनुराग गौतम, अर्चिता मिश्र, अर्पिता द्विवेदी, अवनीश कुमार भारती, अश्वनी प्रजापति, आशीष कुमार गुप्ता, उदय प्रताप पॉल, चंद्रमुखी कुशवाहा, जागृति वर्मा, दीक्षा बाजपेई, देवता प्रसाद मौर्या, निधि चौबे, प्रशांत चौधरी, प्रिया मिश्रा, डॉ फौजदार कुमार, मान्ती शर्मा, शर्मा मुनि लंबरदार, डॉ रणधीर सिंह, राज किरण द्विवेदी, डॉ रीना गौतम, ललिता धीमान, लोकेश कुमार, शिवम शुक्ला, शुभम, डॉ सचिन सैनी, डॉ सचिव गौतम, डॉ संध्या पांडेय, सपना यादव, समरीन फातिमा, सुमित कश्यप, डॉ सुरेश चंद्र जांगिड़, डॉ सुशील पटेल, ज्ञान चंद्र की कलाकृतियाँ इस प्रदर्शनी का आकर्षण होंगी। प्रदेशनी की क्यूरेटर डॉ लीना मिश्र, प्रकाशक, कला दीर्घा दृश्यकला पत्रिका ने बताया कि प्रदर्शनी 30 अक्टूबर तक दर्शकों के अवलोकनार्थ 2 बजे अपरान्ह से 7 बजे सायं तक खुली रहेगी। कला स्रोत कला वीथिका की निदेशक मानसी डिडवानिया के अनुसार दीपोत्सव की दृष्टि से कलाकृतियों की कीमत अपेक्षाकृत कम रखी जाएगी ताकि कलाकारों की रचनात्मक अभिव्यक्ति ये कृतियाँ कलापप्रेमियों के घर की शोभा बन सकें।

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