सुप्रीम कोर्ट ने कहा- सीनियर एडवोकेट बनना सिर्फ चुनिंदा लोगों का एकाअधिकार नहीं हो सकता
नई दिल्ली । उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) ने मंगलवार को वकीलों को ‘वरिष्ठ अधिवक्ता’ (senior Advocate) का पदनाम देने के लिए नए दिशा-निर्देश (Instruction) जारी किए हैं। साथ ही शीर्ष अदालत ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की वकीलों के लिए मौजूदा अंक-आधारित मूल्यांकन प्रणाली को खत्म कर दिया है। जस्टिस अभय एस ओका, जस्टिस उज्जल भुइयां और जस्टिस एस वी एन भट्टी की पीठ ने कहा है कि पिछले साढ़े सात सालों के अनुभव से पता चलता है कि ‘वरिष्ठ अधिवक्ता’ पदनाम के लिए आवेदन करने वाले वकीलों की बार में योग्यता और कानूनी अनुभव का अंकों के आधार पर आकलन करना तर्कसंगत या वस्तुनिष्ठ रूप से संभव नहीं हो सकता है।
इससे पहले शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि वकीलों को वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित करने के मामले में गंभीर आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है। न्यायालय ने कहा कि ‘वरिष्ठ अधिवक्ता’ का पदनाम हासिल करना कुछ चुनिंदा लोगों का एकाधिकार नहीं हो सकता। इसने कहा कि निचली अदालतों और अन्य न्यायिक मंचों पर वकालत करने वाले वकीलों को वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित करने पर विचार किया जाना चाहिए।

इस दौरान पीठ ने यह भी कहा कि पदनाम के लिए चयन प्रक्रिया निष्पक्ष और निर्देशित होनी चाहिए और हर साल कम से कम एक बार इसे जरूर अपनाया जाना चाहिए। पीठ ने कहा, ‘‘जब हम विविधता की बात करते हैं, तो हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उच्च न्यायालय एक ऐसा तंत्र विकसित करे, जिसके तहत हमारी निचली और जिला न्यायपालिका तथा विशेष न्यायाधिकरणों में वकालत करने वाले बार के सदस्यों को नामित करने पर विचार किया जाए, क्योंकि उनकी भूमिका शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालयों में वकालत करने वाले अधिवक्ताओं की भूमिका से कमतर नहीं है। यह भी विविधता का एक अनिवार्य हिस्सा है।’’
शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालयों से कहा है कि वे चार महीने के भीतर नए दिशा-निर्देशों के अनुरूप अपने मौजूदा नियमों में संशोधन करें। फैसले में कहा गया है, ‘‘पदनाम देने का निर्णय उच्च न्यायालयों या सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण पीठ का होगा। स्थायी सचिवालय द्वारा योग्य पाए गए सभी उम्मीदवारों के आवेदन को आवेदकों द्वारा प्रस्तुत प्रासंगिक दस्तावेजों के साथ पूर्ण पीठ के समक्ष रखा जाएगा।’’ सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा, “सर्वसम्मति पर पहुंचने का प्रयास किया जा सकता है। हालांकि अगर अधिवक्ताओं के पदनाम पर सर्वसम्मति नहीं बनती है, तो निर्णय मतदान की लोकतांत्रिक पद्धति से किया जाना चाहिए। किसी मामले में गुप्त मतदान होना चाहिए या नहीं, यह एक ऐसा निर्णय है जिसे उच्च न्यायालयों पर छोड़ दिया जाना चाहिए, ताकि वे संबंधित मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करके निर्णय ले सकें।’’
हालांकि उच्चतम न्यायालय ने कहा कि निर्धारित न्यूनतम योग्यता 10 वर्ष की कानूनी प्रैक्टिस पर पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं है। शीर्ष अदालत ने अधिवक्ताओं द्वारा पदनाम के लिए आवेदन देने की प्रथा जारी रखने की अनुमति भी दी। पीठ ने कहा, ‘‘यह स्पष्ट है कि न्यायालय को भी इस निर्णय के आलोक में नियमों और दिशानिर्देशों में संशोधन करने का काम करना होगा। सुप्रीम कोर्ट और संबंधित उच्च न्यायालयों द्वारा समय-समय पर इसकी समीक्षा करके पदनाम की प्रणाली में सुधार करने का हरसंभव प्रयास किया जाएगा।’’