पुस्तक समीक्षा पाखंडी भारतीय: समीक्षक अरविंद कुमार
पुस्तक- पाखंडी भारतीय
लेखक- रण विजय सिंह
समीक्षक- अरविंद कुमार
शिवांक प्रकाशन,4598/12 बी
गोला काटेज,अंसारी रोड,दरिया गंज,नई दिल्ली -110002
व्यंग्य लिखना बहुत दुष्कर कार्य है इसीलिए व्यंग्य लेख दुर्लभ होते जा रहे हैं।व्यंग्य लेखन तलवार की धार पर चलने जैसा है।एक ओर तो खतरा यह बना रहता है कि लेख एक शुद्ध साहित्यिक ललित निबंध की ओर न मुड़ जाय और दूसरी ओर हास्य और व्यंग्य में अंतर न कर पाने की प्रवृत्ति या ज्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए हास्य का मिकदार बढ़ा देने की कोशिश,उसे व्यंग्य की श्रेणी से कई बार खारिज कर देती है।हंसना- हंसाना हास्य का उद्देश्य है इस लिए कई बार वह विसंगतियों को उद्घाटित नहीं कर पाता है जबकि व्यंग्य का उद्देश्य ही उन विसंगतियों को उजागर करना है।वह विसंगतियाँ,सोच की हो सकती हैं या फिर ऐसी घटनाओं अथवा आचरण की जिनकी ओर हमारा ध्यान शायद तब तक न जाये जब तक कि व्यंग्यकार उसे एक चौखटे में रखकर पेश न कर दे।
लेखक रण विजय सिंह का यह छठवां व्यंग्य संग्रह है जो कि “पनही कुम्भनदास की” के दस वर्ष बाद इस साल प्रकाशित हुआ है। उर्दू में एक विधा है -हज्व -ऐसी कविता जिसमें किसी की निंदा की जाय किंतु व्यंग्य निंदात्मक भी नहीं होना चाहिए।वह मुष्टि प्रहार नहीं करता बल्कि चिकोटी काटता है।चुपके से इशारे में अपनी बात कहता है, पाठक को हाथ पकड़ कर उधर घसीटता नहीं है।वह अपनी बात सूक्ष्म और कोमल ढंग से कहता है लेकिन कहता है। इसलिए जब बत्तीस रचनाओं वाली यह पुस्तक “पाखंडी भारतीय” मिली और उसके साथ जुड़ा हुआ उसको परिभाषित व्यंग्य शब्द मैने देखा तो बहुत सहमते हुए उसे पढ़ना शुरू किया।क्योंकि व्यंग्य होने के साथ उसमें सर्जना के बाकी गुण , संप्रेषणीयता,पठनीयता भी आवश्यक है।इसके साथ ही इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस युग में पाठकों को पकड़ कर रखने की ताकत भी इसमें होनी चाहिए।
और पहले निबंध के शुरुआत में ही यह बात पहली लाइन में ही मिल गई- दोपहर सवा दो बजे फोन की घंटी बजी – सिर्फ एक लाइन से नाटकीयता,चित्रात्मकता के साथ पाठक की रुचि जगाने की ताकत साफ हो जाती है।बाकी जब दोपहर में सोने को अपराध जैसा मानने वाले मित्र से पूछा जाता है कि उनके अनुसार यह अपराध संज्ञेय है अथवा असंज्ञेय – तो वह और भी बढ़ जाती है। मित्र को लगता है कि वे दोपहर में नहीं सोए इसलिए वे महान हो गए हैं और दोपहर में सोने वाला अपराध कर रहा है।क्या बात कही गई है इसके साथ यह भी जरूरी है वह कैसे कही गई है।दोनों ही चीजों को इसमें बेहतर ढंग से किया गया है। व्यंग्यकार की दृष्टि दुनियावी ज्वलंत,विषम समस्याओं पर अवश्य पड़ती है।इस संग्रह के शीर्षक व्यंग्य – “पाखंडी भारतीय “- में आज की समस्याओं पर भारत के तथाकथित प्रगतिशील एवं धर्मनिरपेक्ष लोगों के पक्षपात की शल्य क्रिया बहुत ही तार्किक ढंग से की है। इसमें उनके इस पक्षपात पूर्ण व्यवहार से दूसरे पक्ष में उत्पन्न प्रतिक्रिया का भी विश्लेषण किया गया है।
एक और बात जो इस संग्रह में पाठकों के अनुकूल है वह है लेखों का आकार जो अधिकतर 4-5 पृष्ठों के हैं।कई लेखों में कुछ व्यक्तियों के स्केच भी अच्छे मिलते हैं जैसे मास्टर नानकचंद जी और उत्तम खेती के मिनकू राम जी।उत्तम खेती- के अंत में कही गई बात- ईश्वर तुम्हें वाणी दे, सुर दे ताकि तुम उनके सुर में सुर मिला सको क्योंकि कोई भी दूसरा सुर बेसुरा होगा- आप्त वाक्य, किसान को अपनी स्थिति को सरकारी नीति के अनुसार बेहतर बताने को सलाह देता है।वास्तविकता से अलग।ऐसे आप्त वाक्य संग्रह की अधिकांश रचनाओं में पाए जाते हैं जो उन्हें अधिक प्रभावी बनाते हैं।
रण विजय सिंह के पास अभिव्यक्ति की वह सामर्थ्य है जो भाषा पर अधिकार से आती है।भाषा को और सशक्त बनाते हैं मुहावरे।संग्रह के भाषा की मुहावरेदारी, प्रभावित और आकृष्ट करती है। संग्रह की कुछ रचनाएं एक लंबे समय की घटनाओं पर आधारित हैं।ऐसी रचनाओं में समस्या यह हो जाती है कि कई बार समय गुजरने के बाद उन्हें उनके संदर्भ से जोड़ने के लिए प्रयास करना पड़ता है किंतुसंग्रह की रचनाओं में यह समस्या नहीं आती क्योंकि इनमें सार्वभौमिक तत्व और कटाक्ष से बात आसानी से कह दी जाती है जिसे पाठक आसानी से ग्रहण कर लेता है। पठनीयता की दृष्टि से तो इसमें पाठकों को बांधने की क्षमता है ही व्यंग्य लेखन के मूल तत्वों के आधार पर भी यह एक उल्लेखनीय पुस्तक है।