राजनीति

अंतर्कलह और नाराज खेमों से उबरना बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती – अतुल मलिकराम

2023 में मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव होने को हैं। ऐसे में देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी का मंथन जारी है। 2018 में मिली शिकस्त के बाद, अब भाजपा कोई कमज़ोर कड़ी नहीं छोड़ना चाहती है लेकिन राजनीति में सर्वश्रेष्ठ होने की चाहत ही अक्सर सत्ता से दूर कर देती है। भारतीय जनता पार्टी भले ही उधेड़बुन के बाद सत्ता में लौट आई थी लेकिन जनता के दिलों में लौटने के लिए उसे एक सुढ़ृड़ रणनीति की आवश्यकता है। 15 साल का सत्ता का नशा और कई मामलों की अनदेखी के साथ, बीजेपी की अंतरकलह ने उसे 2018 विधानसभा चुनाव में सत्ता से दूर कर दिया था। इसे मद्देनजर रखते हुए, 2023 विधानसभा चुनाव में अब बीजेपी किसी तरह की चूक से बचना चाहती है।

2020 में जब बीजेपी तोड़-मरोड़ कर सरकार बनाने की स्थिति में आ गई, तो प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान उसी वक़्त भांप गए थे कि अब सत्ता में बने रहना आसान नहीं होगा। इस चुनाव में जहां एक जंग अन्य दलों के साथ होगी तो वहीं दूसरी जंग पार्टी द्वारा नए चेहरे के तलाश के रूप में भी देखने को मिलेगी। प्रदेश के पास 18 साल का मुख्यमंत्री है जिसे अब एंटी इंकम्बेंसी (सत्ता विरोधी लहर) का शिकार होना पड़ सकता है। हालांकि शिवराज ने अपना रूप बदला है लेकिन समस्या इतनी आसानी से हल होती नहीं दिख रही है।

मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री की कुर्सी हथियाने का सपना, शिवराज सिंह चौहान के साथ-साथ अन्य कई बड़े नेता भी देख रहे हैं। ऐसे में जाहिर तौर पर बीजेपी के लिए रणनीति बनाना और रणनीतिक रूप से आगे बढ़ना भी उलझनभरा होगा। गुजरात में सत्ता विरोधी लहर के बावजूद, विधानसभा चुनाव में मिली सफलता के बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि बीजेपी अब गुजरात मॉडल पर ही एमपी का चुनाव भी लड़ेगी लेकिन मध्यप्रदेश का राजनीतिक और जातिगत समीकरण गुजरात से बिलकुल अलग है, ऐसे में गुजरात की रणनीति, एमपी में इस्तेमाल करना मुश्किल होगा।

2023 विधानसभा चुनाव में एमपी बीजेपी के लिए पैराशूट से आ पहुंचे मंत्रियों को टिकट देना और उनके साथ अपने ईमानदार नेताओं की अनदेखी करना, उपचुनावों से भी महंगा साबित हो सकता है। दूसरी तरफ सिंधिया खेमे को खुश रखना भी, बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकता है। फिलहाल तो भारतीय जनता पार्टी, प्रदेशभर में बूथ स्तर पर खुद को मजबूत बनाने में जुटी हुई है। चूंकि आरएसएस का सर्वे मध्य प्रदेश में पार्टी की कमजोर स्थिति को पहले ही दर्शा चुका है। ऐसे में बीजेपी का सबसे अधिक फोकस उन क्षेत्रों में होने वाला है, जहां कांग्रेस मजबूत स्थिति में है या जहां सिंधिया खीमे से बीजेपी का विधायक मौजूद है।

मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के सामने दो मज़बूत चेहरे – ज्योतिरादित्य सिंधिया और नरोत्तम मिश्रा हैं। 2020 में सत्ता में वापसी के बाद से मध्यप्रदेश के गृहमंत्री की छवि जनता में एक बेबाक और राष्ट्रवादी और खासकर हिंदूवादी नेता के रूप में सामने आई है। वहीं दूसरी तरफ ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा बड़ा नाम है, जिन्हे साधे रखना और खुश रखना भी, शिवराज के साथ-साथ पार्टी आलाकमान के लिए बड़ी चुनौती है। क्योंकि शिवराज और सिंधिया ब्रिगेड में आपसी कलह खुलकर 2020 विधानसभा उपचुनाव में सामने आई थी। सिंधिया की खास मानी जाने वाली इमरती देवी ने, डबरा में मिली अपनी हार का ठीकरा नरोत्तम मिश्रा पर फोड़ा था। जिसे पार्टी ने भी इसे दबी ज़ुबान से स्वीकार किया और मिश्रा को तोहफे में गृहमंत्री की कुर्सी मिली, हालाँकि नरोत्तम की चाहत मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने की थी।

इसके अतिरिक्त अंतर्कलह की एक और मिसाल साँची में देखने को मिलती है, जहां बीजेपी के 2 कार्यालय नजर आते हैं। एक गौरीशंकर सेजवार का कार्यालय तो वहीं दूसरा सिंघिया समर्थक प्रभुराम चौधरी का कार्यालय। उपचुनाव के दौरान प्रभुराम चौधरी का समर्थन ना करने पर बीजेपी ने सेजवार को पार्टी से निष्कासित कर दिया था, हालाँकि अब दोबारा सदस्यता दे दी गयी है। लेकिन कहीं न कहीं पार्टी जानती है कि राजनीति में घाव भरते नहीं है। ऐसा ही कुछ हाल इंदौर से सटी विधानसभा क्षेत्र सांवेर का भी है।

भारतीय जनता पार्टी को अगर सत्ता में बने रहना है तो उसके लिए सबसे बड़ी चुनौती अपने ही घर में अपने ही लोगों को ख़ुशी-ख़ुशी साधे रखने की है। बेशक इन सभी मुद्दों पर पार्टी का मंथन जारी है, और वह सत्ता में बने रहने के लिए सभी मसलों पर गंभीरता से काम भी कर रही है। क्योंकि पार्टी आलाकमान जानता है कि इस बार सवर्ण कार्ड काम नहीं आने वाला है। इसलिए कार्यकर्ताओं को एक करने के लिए आरएसएस का अनुशासन का डंडा तो काम करेगा ही लेकिन इसके अलावा जमीनी मुद्दों और अलग-अलग विभागों संगठनों की नाराजगी को मद्देनजर रखते हुए भी रणनीतिक रूप पर काम करना होगा।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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