स्मार्टफ़ोन कैसे कर रहा बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य का नुक़सान

ये कहना है अमेरिकी ग़ैर-सरकारी संस्था ‘सेपियन लैब्स’ का. ये संस्था साल 2016 से लोगों के दिमाग़ को समझने के मिशन पर काम कर रही है. कोरोना काल के दौरान जब बच्चों की पढ़ाई ऑनलाइन शुरू हुई थी तो ये बहस तेज़ हुई थी कि बच्चों का मोबाइल पर स्क्रीन टाइम कितना होना चाहिए?

सेपियन लैब्स की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़, कम उम्र में जब बच्चों को स्मार्टफ़ोन दिए जाते हैं तो युवावस्था आते-आते उनके दिमाग़ पर विपरीत असर दिखने लगता है. ये रिपोर्ट 40 देशों के 2,76,969 युवाओं से बातचीत करके तैयार की गई है और ये सर्वेक्षण इसी साल जनवरी से अप्रैल महीने में किया गया.

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 74 फ़ीसदी महिलाएँ, जिन्हें 6 साल की उम्र में स्मार्टफ़ोन दिया गया था, उन्हें युवावस्था में मेंटल हेल्थ को लेकर परेशानी आई. एमसीक्यू (मानसिक स्वास्थ्य को लेकर आकलन) में इन महिलाओं का स्तर कम रहा. जिन लड़कियों को 10 साल की उम्र में स्मार्टफ़ोन दिया गया, उनमें 61 फ़ीसदी का एमसीक्यू स्तर कम या ख़राब रहा.

वहीं जब छह साल के लड़कों को स्मार्टफ़ोन दिया गया, तो केवल 42 फ़ीसदी में ही एमसीक्यू के स्तर में कमी देखी गई. सफ़दरजंग अस्पताल में काम कर चुके पूर्व मानसिक रोग विशेषज्ञ डॉक्टर पंकज कुमार वर्मा कहते हैं कि इसका कोई वैज्ञानिक आधार तो नहीं दिखता और इसे पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है.

उन्होंने बताया कि इसका एक कारण ये हो सकता है कि लड़कों की तुलना में लड़कियों में किशोरावस्था पहले आती है जिसमें मानसिक और शारीरिक बदलाव शामिल हैं. जब लड़कियों का एक्सपोज़र कम उम्र में होता है तो इस अवस्था में आते-आते लड़कों के मुक़ाबले वे ज़्यादा प्रभावित होती हैं. इस शोध ये भी कहा गया है जिन बच्चों को कम उम्र में स्मार्टफ़ोन दिए गए, उनमें आत्महत्या के विचार, दूसरों के प्रति ग़ुस्सा, सच्चाई से दूर रहना और हेलोसिनेशन होना शामिल है.

वो आमतौर पर घर के काम में व्यस्त रहती थीं और बेटी ज़्यादा परेशान न करे, इसके लिए उन्होंने अपनी 22 महीने की बेटी को स्मार्टफ़ोन पकड़ा दिया. छवि अपनी बेटी को यूट्यूब पर कार्टून लगा कर फ़ोन थमा देतीं और घर के काम में लग जातीं. हालाँकि छवि ने ये कभी नहीं सोचा था कि नासमझी में अपनी बेटी के हाथों में थमाया गया स्मार्टफ़ोन उनके लिए परेशानी का सबब बन जाएगा.

मनोवैज्ञानिक डॉक्टर पूजा शिवम कहती हैं कि छवि जब अपनी बेटी को लेकर आईं, तो वो उम्र के मुताबिक़ बोल सकती थी. उसका विकास भी हुआ था, लेकिन उसमें बहुत एंग्ज़ाइटी थी. वो बताती हैं, ”सात से आठ घंटे तक वो केवल स्मार्टफ़ोन पर रहती थी. छवि उसे यूट्यूब पर कार्टून लगा कर देती. पर सोचिए वहाँ से यूट्यूब पर वो क्या-क्या देख रही होगी, उसका हम केवल अंदाज़ा लगा सकते हैं.”

”वो डरी रहती थी, उसे एंग्ज़ाइटी रहती थी. कोई नया व्यक्ति घर पर आ जाए, तो चिल्लाने लगती, सहम जाती थी. बात न करना और ज़िद्दी होना इसमें शामिल था. इसके बाद हमने स्मार्टफ़ोन से बच्ची को दूर किया और फिर काउंसलिंग शुरू की गई.”

जानकार ये मानते हैं कि आजकल अभिभावक छोटी उम्र में बच्चों के हाथ में पैसिफ़ायर (इसे सूदर कहा जाता है जिसमें निप्पल, शील्ज और हैंडल होता है) के तौर पर फ़ोन दे रहे हैं. मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, हमारे दिमाग़ में कई हज़ार चीज़ें सिग्नल के ज़रिए पहुँच रही होती हैं.

जब कोई स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल करता है तो उसे वीडियो और ऑडियो तो मिल ही रहा है, वहीं कुछ ऐसी चीज़ें भी दिमाग़ में प्रवेश कर रही होती हैं, जो उसमें रोमांच और जिज्ञासा पैदा करती हैं. और ये तो चुंबक की तरह काम करता है.

इस सवाल का जवाब देते हुए वो कहते हैं कि कोरोना के दौरान भी हमने बच्चों में ये देखा था कि स्क्रीन समय बढ़ने और केवल घरों में बंद रहने से वे चिड़चिड़े हो गए, साथ ही एंग्ज़ाइटी और अवसाद के शिकार हो गए.

वे आगे बताते हैं, ”छोटे बच्चों में दिमाग़ का विकास हो ही रहा होता है. उसे पता ही नहीं होता कि वो जो देख रहा है, वो उसके लिए अच्छा है या बुरा. दूसरी बात ये है कि अगर वो किसी कार्टून को देखकर अच्छा महसूस करता है तो दिमाग़ एक केमिकल रिलीज़ करता है- डोपामाइन जो उसे ख़ुशी महसूस कराता है.”

डिजिटल एक्सपोज़र ने बच्चों को एक तरह से इसकी लत डाल दी है. उसका असर ये भी होता कि जब उसे पढ़ना, खेलना, दोस्तों से घुलना-मिलना चाहिए, तब वो उसे भूलकर केवल स्मार्टफ़ोन में ही रमा रहता है, जो उसे डोपामाइन देता है. इस तरह वो एक बनावटी दुनिया में जी रहा होता है.

ऐसे में वे डर, असमंजस, एंग्ज़ाइटी जैसी मनोस्थिति में घिर जाते हैं और आगे जाकर उन पर इसका असर रहता है. वहीं जिन बच्चों का सामाजिक ताने-बाने में रहकर विकास होता है, वो नहीं हो पाता और इसका आगे चलकर उन पर बुरा असर होता है.

इस दौरान केंद्रीय मंत्री रहे रवि शंकर प्रसाद ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, “भारत में वॉट्सऐप के 53 करोड़ यूज़र हैं, यूट्यूब के 44.8 करोड़, फ़ेसबुक के 41 करोड़ और ट्विटर का इस्तेमाल 1.75 करोड़ लोग करते हैं.”

जानकार मानते हैं कि तकनीक के दो पहलू हैं. जहाँ वो जानकारी का एक बड़ा स्रोत बन सकता है, वहीं इसके दुष्परिणाम भी हैं. ऐसे में इसका संतुलित इस्तेमाल होना बेहद ज़रूरी है, जो अक्सर लोग भूल जाते हैं.

छोटे बच्चों को स्मार्टफ़ोन से दूर रखें.

बच्चे को स्मार्टफ़ोन या टैबलेट देने की उम्र तय करें.

बच्चा किसी और दूसरे दोस्त के पास स्मार्टफ़ोन होने का तर्क दे तो उससे बात करें और समझाएँ.

अगर बच्चों को अपने दोस्तों से कनेक्टेड रहना ही है तो घर में लैंडलाइन लगाएँ या केवल ऐसा

मोबाइल फ़ोन दें जिससे केवल बात और मैसेज किया जा सके.

अगर बच्चे की पढ़ाई के लिए मोबाइल ज़रूरी है तो स्क्रीन टाइम को नियंत्रित कीजिए.

स्कूलों में असाइनमेंट ऑनलाइन दिए जाते हैं तो ऐसे में आप एक प्रिंटर ख़रीदिए क्योंकि ये आपके लिए बच्चे पर होने वाले नुक़सान से सस्ता होगा.

इस रिपोर्ट में ये कहा गया है कि जितनी देरी से बच्चों को स्मार्टफ़ोन मिलता है, उतना ही कम उनके मानसिक स्वास्थ्य पर असर होता है.

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