‘कोई खाली पेट न सोए, यह हमारी संस्कृति है’-सुप्रीम कोर्ट
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को केंद्र से यह सुनिश्चित करने को कहा कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत अनाज अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे। जस्टिस एम.आर. शाह और हिमा कोहली की खंडपीठ ने कहा कि “किसी को भी खाली पेट नहीं सोना चाहिए, यह हमारी संस्कृति है।” शीर्ष अदालत कोविड महामारी के दौरान प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा से जुड़े एक मामले की सुनवाई कर रही थी।
इस बात पर जोर देते हुए कि एनएफएसए के तहत अनाज को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाना सरकार का कर्तव्य है, पीठ ने कहा, “हम यह नहीं कह रहे हैं कि केंद्र कुछ नहीं कर रहा है, भारत सरकार ने कोविड के दौरान लोगों को खाद्यान्न सुनिश्चित किया है। साथ ही, हमें इसे जारी रखना होगा।”
अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने तीन सामाजिक कार्यकर्ताओं अंजलि भारद्वाज, हर्ष मंदर और जगदीप छोकर का प्रतिनिधित्व करते हुए कहा कि 2011 की जनगणना के बाद देश की जनसंख्या काफी बढ़ी है और एनएफएसए के तहत आने वाले लाभार्थी भी बढ़े हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि कानून को प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए।
केंद्र का प्रतिनिधित्व कर रहीं अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने तर्क दिया कि एनएफएसए के तहत 81.35 करोड़ लाभार्थी हैं।
भूषण ने कहा कि वैश्विक भूख सूचकांक में भारत तेजी से नीचे गिरा है, हालांकि सरकार का दावा है कि हाल के वर्षो में लोगों की प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है।
भाटी ने आगे कहा कि लाभार्थियों की सूची में कई लोगों को जोड़ा गया है और 2011 की जनगणना ने सरकार को रोका नहीं है। राज्य सरकारों के हलफनामों का हवाला देते हुए भूषण ने कहा कि उनका कहना है कि उनके अनाज का कोटा समाप्त हो गया है।
पीठ ने केंद्र को ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकृत प्रवासी और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या के साथ एक नया चार्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। दलीलें सुनने के बाद पीठ ने मामले की अगली सुनवाई आठ दिसंबर को निर्धारित की।
इससे पहले, केंद्र ने शीर्ष अदालत को बताया था कि 2013 में एनएफएसए के लागू होने के बाद से भारत में प्रति व्यक्ति आय में वास्तविक रूप से 33.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसमें आगे कहा गया है कि बड़ी संख्या में परिवारों ने उच्च आय वर्ग में परिवर्तन किया है।
इससे पहले, शीर्ष अदालत ने केंद्र से यह देखने के लिए कहा था कि एनएफएसए के लाभ 2011 की जनगणना के आंकड़ों तक सीमित नहीं हैं और इसके तहत अधिक जरूरतमंद लोगों को शामिल किया जाना चाहिए।