एक धर्म के भीतर कई धर्म; आखिर धर्म के नाम पर इंसानियत का बँटवारा क्यों? – अतुल मलिकराम

धर्म क्या है? पहले यह जान लेते हैं

श्रीकृष्ण ने महाभारत में कहा है
“धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा:”
अर्थात् धारण करने योग्य अच्छे गुण ही धर्म हैं।

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, यहूदी, जैन आदि धर्म नहीं, बल्कि व्यक्ति विशेष द्वारा बनाई गई विचारधाराएँ हैं। जिसे सभी लोग धर्म समझते हैं, वह धर्म नहीं सांप्रदायिकता है। सांप्रदायिकता हमेशा परिवार स्तर से अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक अंतर्विरोध ही खड़ा करती है।

सबसे पहले एक ही धर्म था, वह था मनुष्य और इंसानियत का धर्म। सम्पूर्ण मानव जाति एक ही माँ की संतान है, लेकिन आज वह संतान और उसकी इंसानियत कई सारे धर्मों में बंट चुकी है। जैसे किसी एक नदी की उत्पत्ति होती है और वह अपने मार्ग से आते-आते अन्य मार्गों से टूट कर कई उपनदियों में परिणत हो जाती है और इनके नाम अलग हो जाते हैं। फिर ये ही उपनदियाँ एक स्थान पर जाकर यानि कि समुद्र में लीन हो जाती हैं। मनुष्य के साथ भी कुछ ऐसी ही कहानी है।

यदि हम धर्मों की श्रृंखला देखें, तो यह बहुत ऊँची दिखाई पड़ती है, जो बढ़ती ही जा रही है। हिन्दू धर्म की बात करें, तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। वहीं मुस्लिम धर्म में होते हैं सिया और सुन्नी। सिख धर्म में आकर ये जाट, खत्री और रामगढ़िया में विभाजित हो जाते हैं। ऐसे ही विविध धर्मों, उनके भीतर जातियों और फिर उप-जातियों का कोई अंत नहीं है।

क्या इंसानियत कोई धर्म ही नहीं?

आज के दौर में धर्म के नाम पर मानवता मारी जा चुकी है। आज इंसान अपने दकियानूसी धर्म में इतना बंध गया है कि उसमें इंसानियत बची ही नहीं है। कई बार सड़क पर हमें एक्सीडेंट होते देखने में आ जाते हैं, लेकिन हमारा दिल नहीं पसीजता और न ही हम उस व्यक्ति की मदद के लिए आगे बढ़ते हैं, शायद इसलिए क्योंकि हमारा उससे कोई रिश्ता या लेना-देना नहीं। मन के किसी शैतानी कोने से यह विचार आ ही जाता है कि हम उसे नहीं जानते, तो हमें क्या? ज़रा सोचिए, यदि वह हमारा कोई अपना होता, तो क्या हम उसे ऐसे तड़पता छोड़ते? हम यह क्यों नहीं सोचते हैं कि हमारा नहीं, तो क्या हुआ, वह किसी न किसी का तो अपना होगा ही न! क्या इंसानियत की परिभाषा इतनी छोटी है कि हम उसे जानें, तभी जरुरत में उसकी मदद करें? बिना जाने भी तो मदद की जा सकती है न…

एक उदाहरण देना चाहता हूँ इंसानियत का.. जो इस धर्म के उड़नखटोले के नीचे दबी हुई उजड़ी विचारधारा को सच में उड़जा हुआ बताने का ही काम करेगी। कहने का अर्थ यह है कि आज भी कई लोग इस धरती पर मौजूद हैं, जो धर्म से ऊपर इंसानियत को मानते हैं। मेरे परिचित रमन शर्मा की बीवी की डिलीवरी के समय की बात है। शरीर में खून की कमी होने से अचानक खून की जरुरत पड़ गई। शर्मा जी उन दिनों काम के सिलसिले में देश से बाहर थे। हॉस्पिटल में साथ थीं, तो सिर्फ उनकी माँ। यह उस समय की बात है, जब हर इंसान की जेब में मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे। अब क्या किया जाए, क्या न किया जाए, माँ को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। पास में बैठे अब्दुल खान ने जैसे ही माँ से खून की सख्त जरुरत के बारे में जाना, तो एक्सीडेंट हुए अपने बेटे के पास उन्हें बैठाकर बिना समय गवाए खून देने पहुँच गए। आकर माँ से कहते हैं, अल्लाह की रेहमत से आपकी बहु बिल्कुल ठीक है और आपको दादी बनने की खुशी में मुबारकबाद।

यह मिसाल है उस इंसानियत की, जो धर्म को आड़े नहीं लेता है। यदि अब्दुल मियाँ जैसे और लोग जन्म ले लें, तो इंसानियत की पहल दौड़ पड़ेगी दुनिया में, फिर न ही हिन्दू-मुस्लिम होगा और न ही सिख-ईसाई, हर तरफ सिर्फ एक धर्म होगा और वह होगा इंसानियत का धर्म।

धर्म सिर्फ और सिर्फ इंसानियत का ही होना चाहिए, लेकिन आज मनुष्य अपनी जरूरत के हिसाब से धर्म को प्राथमिकता देता है। सभी धर्मों में कुछ समानताएँ हैं, जिसमें धर्म सहिष्णुता, सच बोलना, चोरी न करना, सभी का सम्मान करना, प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग करना, अच्छी शिक्षा प्राप्त करना, असमर्थ की सहायता करना आदि शामिल हैं। जब समस्त धर्म इन मूल बातों के लिए सहमत हैं, तो इंसानियत ही एक धर्म क्यों नहीं बन जाता, जहाँ सब सामान हों और भाईचारे से रहें..

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