जानिए किस व्रत को करने से यमराज भी हो जाते है प्रसन्न,नहीं करना पड़ते नरक के दर्शन

हिंदू धर्म में धर्मराज के समाराधन व्रत का बहुत महत्व माना गया है. इसे नरकार्ति- विनाशिनी त्रयोदशी व्रत भी कहा जाता है. स्कंद और भविष्य पुराण के अनुसार जो मनुष्य इस व्रत को विधिपूर्वक करता है, उससे यमराज प्रसन्न होते हैं. यमदूतों व नरक के दर्शन तक नहीं कर वह अंत समय में शिव व विष्णु लोक को प्राप्त करता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार मुद्गल मुनि ने भगवान श्रीकृष्ण को इस व्रत की विधि व महत्व के बारे में बताया था. आज हम उसी कथा व विधि के बारे में आपको बताने जा रहे हैं.

समाराधन व्रत कथा
विद्वानों की माने तो एक बार भगवान श्रीकृष्ण द्वारका स्थित समुद्र में स्नान कर बाहर निकले. तभी उन्हें सामने से मुद्गल मुनि आते दिखे. उनका आदर-सत्कार कर श्रीकृष्ण ने उनसे ऐसे व्रत के बारे में पूछा, जिससे प्राणियों को यमदूत व नरक के दर्शन नहीं करने पड़ते. ये सुनकर मुद्गल मुनि ने बताया कि एक बार वह अचानक मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े थे. उस समय हाथ में लाठी लिए यमदूत आग से जलते हुए शरीर से उनकी आत्मा को यमपुरी ले गए.

जहां एक सभा में यमराज विराजमान थे. राक्षस, भयंकर जीव सहित कई रोग व मृत्यु मूर्तिमान होकर उन्हें घेरे हुए थे. तब यमराज ने उन्हें देख अपने दूतों से कहा कि वह गलती से मुद्गल मुनि को पकड़ लाए हैं. उन्होंने तो कौंडिन्य नगर के क्षत्रिय राजा मुद्गल को यमपुरी लाने को कहा था. ये सुन दूत फिर कौंडिन्य नगर गए, पर वहां से भी खाली हाथ लौट आए.

दूतों ने यमराज से कहा कि उन्हें राजा मुद्गल दिखाई ही नहीं दिये. ये सुन यमराज ने दूतों को बताया कि जो पुरुष नरकार्ति- विनाशिनी त्रयोदशी का व्रत करते हैं, उसे यमदूत नहीं देख पाते. राजा मुद्गल द्वारा भी यही व्रत करने पर तुम उसे पहचान नहीं सके. इस व्रत का इतना प्रभाव जानकर यमदूतों ने इस व्रत के बारे में पूछा तो यमराज ने ही इस व्रत की विधि भी बताई. जिसके बाद मुद्गल मुनि भी अपने शरीर में फिर लौट आए.

समराधन व्रत की विधि
भविष्यपुराण के अनुसार यमराज यमदूतों को बताते हैं कि मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को जब रविवार व मंगलवार हो तो समराधन व्रत करना चाहिए. इस दिन 13 विद्वान और पवित्र ब्राह्मणों व एक पुराण वाचक को उत्तर दिशा में मुख कर बैठाएं. फिर तिल- तेल से मालिश व स्नान करवाकर उनकी सेवा के बाद पूर्व दिशा में मुख करवाकर भोजन कराएं. फिर आचमन व अर्चना करते हुए तांबे के पात्र में एक सेर तिल- तण्डुल, दक्षिणा, छत्र व जलपूर्ण कलश उन्हें प्रदान करें. इस प्रकार ये व्रत वर्षभर तक करें.

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