रंगों की पारदर्शिता में जीवन और अध्यात्म : राजेंद्र प्रसाद की कृतियाँ
लखनऊ,27 लखनऊ 2025, भारतीय चित्रकला में वाश परंपरा एक सूक्ष्म और पारभासी शैली के रूप में उभरी है, जिसमें पतले रंगों की परतों से प्रकाश, गहराई और भाव अभिव्यक्त किया जाता है। मुग़लकालीन चित्रकला से इसकी जड़ें जुड़ी हैं, जहां प्राकृतिक दृश्यों और शाही जीवन के सूक्ष्म चित्रण के लिए इसे अपनाया गया। ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रभाव और आधुनिक युग में कलाकारों ने इसे और विकसित किया, जिससे ग्रामीण जीवन, लोकजीवन और मानवीय भावनाओं का सूक्ष्म चित्रण संभव हुआ। शनिवार को नगर के कोकोरो आर्ट गैलरी में वाश शैली के वरिष्ठ चित्रकार राजेंद्र प्रसाद के वाश पद्धति मे रचित कृतियो की एकल प्रदर्शनी “लौकिक – अलौकिक” की शुरुआत की गयी। इस प्रदर्शनी का उदघाटन रंगमंच, टेलीविजन एवं फिल्म जगत के वरिष्ठ अभिनेता अनिल रस्तोगी ने किया। प्रदर्शनी की क्यूरेटर वंदना सहगल हैं। इस अवसर पर बड़ी संख्या में कलाकार,कला प्रेमी, छात्र उपस्थित रहे।
क्यूरेटर वंदना सहगल ने बताया कि भारतीय चित्रकला में वॉश तकनीक ने अपनी सूक्ष्मता, पारदर्शिता और भावों की गहराई के कारण विशिष्ट स्थान बनाया है। यह तकनीक टेम्परा और इंक एंड वॉश का अद्भुत संयोजन है, जिसकी उत्पत्ति प्राचीन एशियाई स्याही-चित्र परंपराओं में हुई थी। चीन और जापान की चित्रकला में बड़े ब्रश और पानी की मदद से रंगों की हल्की, कोमल और बहुरंगी परतें बनाई जाती थीं, जिससे चित्रों में जीवन्तता और सूक्ष्मता दोनों आती थीं। 1912 में अवनीन्द्र नाथ टैगोर, नंदलाल बोस और असित कुमार हलधर समेत बड़ी संख्या में कलाकारों ने इस तकनीक को भारत में प्रस्तुत किया और इसे अजंता के भित्तिचित्रों तथा बंगाल स्कूल की संवेदनाओं के साथ जोड़कर एक नया आयाम दिया। इसके बाद लखनऊ का कला एवं शिल्प महाविद्यालय इस शैली का प्रमुख केंद्र बन गया, जिसने वॉश को भारतीय कला में समृद्ध और प्रतिष्ठित किया। बी.एन. आर्य ने इस तकनीक को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई और इसे वैश्विक कला परिदृश्य में स्थापित किया। बाद में बड़ी संख्या में कलाकारों ने इसे नवीन दृष्टियों और प्रयोगों से समृद्ध किया।
वॉश तकनीक की प्रक्रिया अत्यंत सूक्ष्म और जटिल है। इसमें चित्र पर जलरंग की पारदर्शी परत डाली जाती है और उसे पानी में डुबोया जाता है, जिससे रंग आंशिक रूप से धुल जाते हैं। इसके बाद नई पारदर्शी परत चढ़ाई जाती है। यह क्रम कई बार दोहराया जाता है और विभिन्न परतों के मिलन से एक स्वप्निल, बहुरंगी और कालातीत वातावरण उत्पन्न होता है। इसी तकनीकी सूक्ष्मता के कारण वॉश चित्र केवल देखने योग्य नहीं, बल्कि अनुभव करने योग्य बनते हैं।
राजेंद्र प्रसाद इस शैली के वर्तमान समय में सबसे प्रभावशाली और आधुनिक प्रतिनिधि हैं। उनकी पेंटिंग्स में फीके, धुले रंगों के बीच से निकलती सूक्ष्म रोशनी चित्रों को अद्वितीय भाव और गहराई देती है। उनकी विषयवस्तु मुख्य रूप से ग्रामीण जीवन और भारतीय लोकजीवन की सहज झलकियों से प्रेरित है। किसी महिला का बाल संवारना, सूर्योदय को प्रणाम करना, शरीर पर टैटू बनवाना, मछुआरों का जाल फेंकना—इन दृश्यावलियों में यथार्थवाद और भावनात्मक गहराई का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। ये चित्र केवल रोजमर्रा की गतिविधियाँ प्रस्तुत नहीं करते; वे जीवन की संवेदनाओं, समय के प्रवाह और मानवीय अनुभवों को भी उभारते हैं।
उनकी कला का दूसरा आयाम अध्यात्म और प्रतीकवाद है। कृष्ण-राधा के प्रेम प्रसंगों में रंगों का धुंधलका और कोमल प्रभाव रोमांटिक और अलौकिक भावनाओं को उजागर करता है। वहीं बुद्ध संबंधी चित्रों में आत्मनिरीक्षण, ध्यान, शांति और मोक्ष की अनुभूति होती है। भिक्षापात्र, भगवा वस्त्र, कमल और बोधिवृक्ष जैसे प्रतीकों का बार-बार प्रयोग उनके चित्रों में गहन दार्शनिकता और आध्यात्मिक आयाम जोड़ता है। ये प्रतीक न केवल चित्रों की दृश्य सुंदरता को बढ़ाते हैं, बल्कि दर्शक को उनके अर्थ और दर्शन के गहन आयाम में ले जाते हैं।
वॉश तकनीक का भारतीय सफर 1912 से आज तक अनेक कलाकारों के योगदान से समृद्ध हुआ है। यह तकनीक न केवल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि समकालीन कलाकारों के लिए निरंतर प्रेरणा का स्रोत भी बनी हुई है। चित्रकार राजेंद्र प्रसाद ने इस तकनीक को नई संवेदनशीलता, गहराई और सौंदर्य के साथ पुनर्संयोजित किया। उनके चित्रों में लौकिक जीवन की सहजता और अलौकिक आध्यात्मिक गहराई का अद्भुत संगम दिखाई देता है। उनकी कला दर्शक को केवल देखने का अनुभव नहीं देती; यह उन्हें एक आत्मिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक संवाद में ले जाती है। यही कारण है कि राजेंद्र प्रसाद को समकालीन भारतीय वॉश शैली का सबसे प्रभावशाली और प्रामाणिक प्रतिनिधि माना जाता है।
प्रदर्शनी के कोऑर्डिनेटर भूपेंद्र अस्थाना ने बताया कि राजेंद्र प्रसाद (जन्म 1958, उत्तर प्रदेश) वरिष्ठ समकालीन चित्रकार, कला शिक्षक और संरक्षण विशेषज्ञ हैं, जिन्हें विशेष रूप से वॉश तकनीक में निपुणता के लिए जाना जाता है। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स से कला में शिक्षा प्राप्त की और 1996 में क्रिएटिव पेंटिंग में मास्टर ऑफ फाइन आर्ट्स प्रथम श्रेणी के साथ प्राप्त किया। उन्होने मुम्बई, नई दिल्ली और बेंगलुरु जैसी प्रमुख गैलरियों में व्यक्तिगत प्रदर्शनी आयोजित की है और लंदन, रोम समेत राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय समूह प्रदर्शनियों में भाग लिया है। उनके कार्य ललित कला अकादमी, नई दिल्ली; उत्तर प्रदेश राज्य ललित कला अकादमी; रामकथा संग्रहालय, अयोध्या; और अनेक विश्वविद्यालयों तथा निजी संग्रहों में संजोए गए हैं। उन्होंने INTACH के साथ कई हेरिटेज पेंटिंग्स और महत्वपूर्ण चित्रों का संरक्षण भी किया है। डॉ. शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ से एसोसिएट प्रोफेसर और फाइन आर्ट्स विभाग के प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त होने के बाद, वे कला और शिक्षा के क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ चुके हैं।
इस प्रदर्शनी में 15 कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया है । प्रदर्शनी में
नवनीत सहगल,अवधेश मिश्रा, मामून नोमानी, राकेश चंद्रा, सुशील कन्नौजिया, राजेंद्र मिश्रा, रत्नप्रिया, रविकांत पांडेय, आलोक कुमार सहित अन्य लोग भी मौजूद रहे। ज्ञातव्य हो कि यह प्रदर्शनी 8 अक्टूबर 2025 तक अवलोकनार्थ लगी रहेगी।

