जम्मू का पुनर्जागरण: जीआई टैग्स का स्थानीय धरोहर और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
जम्मू और कश्मीर की सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान में एक नया दौर देखने को मिल रहा है। 2019 के बाद केंद्र सरकार के प्रयासों से जम्मू के कई उत्पादों को भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग प्राप्त हुए हैं, जिसने स्थानीय धरोहर को वैश्विक पहचान दिलाई और आर्थिक प्रगति को बढ़ावा दिया है। इन उत्पादों ने न केवल अपनी विशिष्टता को बरकरार रखा है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी धूम मचा दी है।
कठुआ-बसोहली पेंटिंग्स और पश्मीना: शिल्प की पुनरुद्धार
कठुआ की बसोहली पेंटिंग्स और पश्मीना ने अपनी प्राचीन कला को फिर से जीवन में लाया है। बसोहली पेंटिंग्स की रंगीन और जटिल डिजाइनों ने देशभर में नई पहचान पाई है। जीआई टैग्स ने इस कला को स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में पहचान दिलाई है। बसोहली पश्मीना अपनी बेहद नरमी, बारीकी और पंख जैसी हल्केपन के लिए मशहूर है।
बसोहली पश्मीना कला को 2023 में भौगोलिक संकेत (GI) टैग मिला। GI टैग इस उत्पाद की खास भौगोलिक पहचान और गुणों की आधिकारिक मान्यता है। बसोहली पश्मीना को GI टैग दिलाने में उद्योग और वाणिज्य विभाग, नाबार्ड जम्मू, और मानव कल्याण संघ, वाराणसी का सहयोग रहा।
विश्वप्रसिद्ध बसोहली पेंटिंग को 31 मार्च 2023 को जीआई टैग मिला। राजेश्वर सिंह, एक कलाकार, कहते हैं, “बसोहली पेंटिंग्स को अब बड़े पैमाने पर पसंद किया जा रहा है, जिससे हमारी कला की कद्र बढ़ी है। अब हम नए कलाकारों को भी प्रशिक्षित कर रहे हैं, जिससे इस धरोहर को बचाए रखा जा सके।”
इसी तरह, पश्मीना बुनाई करने वाली अंजना देवी के अनुसार, “पहले हमारी मेहनत का सही मूल्य नहीं मिलता था, लेकिन जीआई टैग ने हमारी मेहनत को मान्यता दिलाई है। हम अपनी कला को लेकर पहले से कहीं अधिक गर्व महसूस कर रहे हैं।”
भद्रवाह-राजमा: खेती की नयी पहचान
भद्रवाह राजमा, एक प्रकार की लाल किडनी बीन्स, को 2023 में GI टैग मिला। इस लोकप्रिय क्षेत्रीय उत्पाद को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाने के लिए नाबार्ड की मदद से यह टैग प्रदान किया गया।
भद्रवाह का राजमा अब सिर्फ स्थानीय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में भी पहचान बना रहा है। राजमा की विशिष्टता और गुणवत्ता के कारण इसे जीआई टैग प्राप्त हुआ है, जिससे किसानों को अधिक लाभ मिलने लगा है।
सुमेर चंद, एक अनुभवी किसान, बताते हैं, “हमारे राजमा की मिठास अब हर जगह प्रसिद्ध हो रही है। जीआई टैग ने हमें स्थानीय व्यापारियों से भी आगे बढ़ने का मौका दिया है।”
शांता देवी, जो कई वर्षों से खेती कर रही हैं, कहती हैं, “इस जीआई टैग ने हमें वह पहचान दिलाई है, जिसका हम लंबे समय से इंतजार कर रहे थे। अब हमारी फसल के दाम में भी बड़ा फर्क आया है।”
राजौरी-चिकरी लकड़ी की कला: धरोहर की फिर से खोज
राजौरी की चिकरी लकड़ी की कला, जो वर्षों से अंधेरे में थी, अब GI टैग की बदौलत फिर से जीवंत हो रही है। यह पारंपरिक शिल्प, जो अपनी बारीकी और जटिल डिजाइनों के लिए जानी जाती है, अब वैश्विक बाजारों में अपना स्थान बना रही है।
चिकरी शिल्प के लिए GI टैग प्रक्रिया दिसंबर 2020 में शुरू हुई, जब राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) ने इस उत्पाद को अनोखा माना।
2021 में, इस शिल्प को टैग मिला, जो एक प्रकार का बौद्धिक संपदा अधिकार है जो उत्पादों की उत्पत्ति और उनकी विशेषताओं की सुरक्षा करता है। यह तीसरे पक्ष द्वारा अनधिकृत उपयोग को रोकता है, जिससे निर्यात को बढ़ावा देने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रांड्स को प्रमोट करने में मदद मिल सकती है।
विनोद ठाकुर, जो इस कला के प्रति समर्पित हैं, कहते हैं, “जीआई टैग ने हमें नई ऊर्जा दी है। अब हमारे बनाए उत्पाद हर जगह सराहे जा रहे हैं, और हमारी आय भी बढ़ी है।”
रेणु बानो, एक महिला कारीगर, बताती हैं, “चिकरी कला अब सिर्फ एक काम नहीं, बल्कि हमारी पहचान बन गई है। इससे हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति में बड़ा सुधार आया है।”
रामबन-सुलाई हनी: प्रकृति की मिठास
रामबन का शहद, जो अपने खास स्वाद, खुशबू और मिठास के लिए जाना जाता है, इस इलाके की अनमोल धरोहर है। इसे सुलाई हनी के नाम से भी पहचाना जाता है और यह बेहद पौष्टिक होता है, जिसमें ताकतवर एंटीऑक्सीडेंट और इम्यूनिटी बढ़ाने वाले गुण होते हैं। इस शहद का उत्पादन सुलई के सफेद फूलों से अगस्त से अक्टूबर के बीच किया जाता है, जब मधुमक्खियाँ इन फूलों के रस पर निर्भर होती हैं। इसका स्वाद प्राकृतिक मिठास और हल्के फूलों के स्वाद से भरा होता है।
नाबार्ड के सहयोग से, इस अनोखे शहद को 2021 में जीआई टैग मिला। जीआई टैग ने इस हनी की गुणवत्ता और प्रामाणिकता को सुनिश्चित किया है।
प्रेम सिंह, मधुमक्खी पालन करने वाले, गर्व से कहते हैं, “हमारा शहद अब बड़े-बड़े शहरों तक पहुँच रहा है। जीआई टैग ने इसे मान्यता दी है, जिससे हम बेहतर दाम पा रहे हैं।”
किरण शर्मा, एक उद्यमी, बताती हैं, “शहद की गुणवत्ता में किसी तरह का समझौता नहीं होता। हम इसे सीधे ग्राहकों तक पहुँचाते हैं, और अब हमारे पास बड़े बाजारों तक पहुँच है।”
आरएस पुरा-बासमती चावल: गर्व और समृद्धि
जनवरी 2024 में, APEDA ने जम्मू और कश्मीर में बासमती चावल के लिए पहला GI टैग सर्वेश्वर फूड्स लिमिटेड को प्रदान किया। यह कंपनी इस क्षेत्र की पहली और एकमात्र कंपनी है जिसे निर्यात के लिए बासमती चावल का GI टैग मिला है।
आरएस पुरा का बासमती चावल, अपनी विशिष्ट सुगंध और लंबी दानों के कारण प्रसिद्ध है। जीआई टैग ने इस क्षेत्र के किसानों को न केवल अधिक मुनाफा दिलाया है, बल्कि उन्हें वैश्विक पहचान भी दिलाई है। सर्वेश्वर फूड्स लिमिटेड जम्मू और कश्मीर की पहली कंपनी है जिसे बासमती चावल के लिए यह GI टैग मिला है।
गुरमीत सिंह, जो लंबे समय से बासमती की खेती कर रहे हैं, कहते हैं, “हमारे चावल की अंतरराष्ट्रीय मांग बढ़ी है, और इसका पूरा श्रेय जीआई टैग को जाता है।”
मंजू देवी, एक स्थानीय किसान, इस पहल से बेहद खुश हैं। वह बताती हैं, “बासमती चावल की बिक्री से अब हमारी आमदनी में जबरदस्त इजाफा हुआ है। यह हमारी मेहनत की सच्ची पहचान है।”
लेकिन इतना ही नहीं, कि अनथक प्रयासों के बाद जम्मू के कई उत्पादों को जीआई टैग मिला है। भारतीय सरकार अभी भी थकी नहीं है। उनका निरंतर प्रयास है कि और भी उत्पाद, जैसे लैवेंडर और केसर, इस सूची में शामिल हों, हालांकि ये उत्पाद पहले से ही काफी लोकप्रिय हैं।
उधमपुर-कलाड़ी: डोगरा चीज़ का विश्व पटल पर उदय
उधमपुर की गलियों में मिलने वाली कलाड़ी अब सिर्फ एक स्ट्रीट फूड नहीं रही, बल्कि डोगरा संस्कृति की पहचान बन गई है। जीआई टैग ने इस चीज़ को एक नए आयाम पर पहुंचा दिया है।
कलाड़ी डेयरी उत्पाद को 2023 में GI टैग मिला है। कलाड़ी पनीर उधमपुर का पारंपरिक उत्पाद है और इसे कच्चे पूर्ण वसा वाले दूध से बनाया जाता है। यह भारतीय संस्करण के मोज़ेरेला पनीर के समान है और उधमपुर और जम्मू जिलों में काफी लोकप्रिय है।
सरला देवी, जो वर्षों से कलाड़ी बना रही हैं, कहती हैं, “लोग अब दूर-दूर से इसे चखने आते हैं। पहले हमने सिर्फ स्थानीय बाजार में बेचने की सोची थी, लेकिन जीआई टैग ने इसे विश्वस्तरीय बना दिया है।” वहीं रणजीत ठाकुर, एक विक्रेता, कहते हैं, “अब हमारी कलाड़ी देश के विभिन्न कोनों में बिक रही है। यह डोगरा संस्कृति का सबसे स्वादिष्ट उदाहरण है।”
किश्तवाड़-केसर: सोने जैसी कीमत
किश्तवाड़ का केसर पहले कश्मीर के केसर के मुकाबले में देखा जाता था, लेकिन अब इसने अपनी अलग पहचान बना ली है और बहुत ही बेहतर माना जाता है। इस कीमती फसल की मांग में भारी बढ़ोतरी हुई है और किसान इसे गर्व से अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बेच रहे हैं।
हालांकि, किश्तवाड़ केसर को अभी तक जीआई टैग नहीं मिला है, लेकिन इसकी बढ़ती लोकप्रियता और मांग के चलते, जीआई टैग मिलने की उम्मीदें बहुत अधिक हैं। इस समय, केसर का व्यापार बढ़ रहा है और इसकी कीमत में इजाफा हो रहा है।
धर्म सिंह, एक केसर किसान, बताते हैं, “पहले हमें अपने केसर के लिए उचित दाम नहीं मिलते थे, लेकिन अब इसका व्यापार बढ़ गया है और हमारी फसल का मूल्य बढ़ा है।”
रीना देवी, जो अपने खेतों में केसर उगाती हैं, कहती हैं, “हमारा केसर अब कश्मीर के केसर से बेहतर माना जा रहा है। यह हमारे जीवन का सबसे कीमती संसाधन है और हमें अब ज्यादा मान-सम्मान मिल रहा है।”
भद्रवाह-लैवेंडर: पर्पल क्रांति की सफलता
भद्रवाह में लैवेंडर की खेती ने क्षेत्र में नए आर्थिक अवसरों के द्वार खोल दिए हैं। इस सुगंधित पौधे से तैयार एसेन्शियल ऑयल और ब्यूटी प्रोडक्ट्स न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय हो रहे हैं।
हालांकि, इस उत्पाद को अभी तक जीआई टैग नहीं मिला है, लेकिन सरकार जल्द ही इसे जीआई टैग देने की योजना बना रही है। सरकार की अरोमा मिशन और पर्पल रिवोल्यूशन जैसी पहल इस क्षेत्र की वृद्धि और इस उत्पाद की वैश्विक पहचान को बढ़ावा दे रही हैं।
मीरा देवी, लैवेंडर किसान, कहती हैं, “पहले यह फसल बहुत छोटी मानी जाती थी, लेकिन अब इसकी पहचान बढ़ी है। इससे हमें आर्थिक आजादी मिल रही है।” राहुल शर्मा, एक व्यापारी, बताते हैं, “लैवेंडर से बने उत्पाद अब कई बड़े ब्रांड्स में इस्तेमाल हो रहे हैं। यह हमारे क्षेत्र के लिए गर्व की बात है।”
जीआई टैग्स ने जम्मू के विभिन्न क्षेत्रों को नई पहचान और समृद्धि दिलाई है। इन टैग्स ने न केवल स्थानीय धरोहर को संरक्षित किया है, बल्कि स्थानीय लोगों के जीवन में आर्थिक उन्नति भी लाई है। जम्मू के उत्पाद अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान पा रहे हैं, और इससे क्षेत्र की सांस्कृतिक और आर्थिक स्थिति में भी सुधार हो रहा है।
वन इंडिया से साभार