पितृ पक्ष के दौरान पितरों को पिंडदान करना सुख-समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण, जाने कैसे करे पिंडदान
मुजफ्फरनगर। पितरों की आत्मा की मुक्ति और शांति के लिए भाद्र मास में शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से आरम्भ होकर आश्विन मास में कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक एक पखवाड़े तक चलने वाला पितृपक्ष आज से शुरू हो गया है। एक पखवाड़े तक चलने वाले श्राद्ध तिथियों में मुख्य 18 सितम्बर को प्रतिपदा तिथि को पड़वा श्राद्ध, 26 सितंबर को मातृ नवमी को मां का श्राद्ध, 29 सितंबर द्वादशी का तिथि को संन्यासियों का, एक अक्टूबर चतुर्दशी तिथि पर अस्त्र-शस्त्र या अकाल मौत वालों का श्राद्ध और दो अक्टूबर को अमावस्या का श्राद्ध किया जाता है।
सनातन धर्म में पितरों की आत्मशंति और मोक्ष प्राप्ति के लिए पितृ पक्ष का समय महत्वपूर्ण माना गया है। धार्मिक मान्यता है कि इस महीनें में श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान से पितरों को मोक्ष मिलता है। मान्यता है कि श्राद्ध कर्म करने से जीवन में सुख-समृद्धि, शांति और वंश वृद्धि का आशीष प्राप्त होता है। हर साल पितृपक्ष में पूर्वज पितृलोक से धरती लोक पर आते हैं और श्राद्ध मिलने पर प्रसन्न होकर स्वस्थ, चिरंजीवी, धनधान्यपूर्ण और परिवार के मंगल का आशीर्वाद देकर पितृ लोक को वापस जाते हैं। हिन्दू अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं और उनके लिए पिण्ड दान करते हैं।
इसे ‘सोलह श्राद्ध, ‘महालय पक्ष, ‘अपर पक्ष आदि नामों से भी जाना जाता है। स्मृतियों एवं पुराणों में भी आत्मासंसरण संबंधी विश्वास पाए जाते हैं और इनमें भी पितृर्पण के लिए श्राद्ध संस्कारों की महत्ता परिलक्षित होती है। मृत्युपरांत पितृ-कल्याण-हेतु पहले दिन दस दान और अगले दस ग्यारह दिन तक अन्य दान दिए जाने चाहिए। इन्हीं दान की सहायता से मृतात्मा नई काया धारण करती है और अपने कर्मानुसार पुनरावृत्त होती है। पिंडदान की परंपरा केवल प्रयाग, काशी और गया में है, लेकिन पितरों के पिंडदान और श्राद्ध कर्म की शुरुआत प्रयाग में क्षौर कर्म से होती है।
पितृपक्ष में हर साल बड़ी संख्या में लोग देश के कोने कोने से ङ्क्षपण्ड दान के लिए संगम आते हैं। पितृ मुक्ति का प्रथम एवं मुख्य द्वार कहे जाने के कारण संगमनगरी में पिंडदान और श्राद्ध कर्म का विशेष महत्व है। धर्म शास्त्रों में भगवान विष्णु को मोक्ष के देवता माना जाता है। प्रयाग में भगवान विष्णु बारह भिन्न रूपों में विराजमान हैं। मान्यता है कि त्रिवेणी में भगवान विष्णु बाल मुकुंद स्वरूप में वास करते हैं। प्रयाग को पितृ मुक्ति का पहला और मुख्य द्वार माना जाता है। काशी को मध्य और गया को अंतिम द्वार कहा जाता है। प्रयाग में श्राद्ध कर्म का आरंभ मुंडन संस्कार से होता है।
प्रयाग धर्म संघ के अध्यक्ष पंड़ति राजेंद्र पालीवाल ने बताया कि धर्म शास्त्रों में कहा गया है, ‘किसी भी पाप और दुष्कर्म की शुरुआत मुंडन से होती है। इसलिए कोई भी धार्मिक कृत्य करने से पहले मुंडन कराया जाता है।Ó प्रयाग क्षेत्र में वैदिक मंत्रों के मध्य मुंडन तर्पण और पिंडदान करने से किसी भी मनुष्य के तीन पीढिय़ों के पुरखों को गया धाम चलने के लिए निमंत्रण मिलता है। श्राद्ध पक्ष के दौरान पूर्वज अपने परिजनों के हाथों से तर्पण स्वीकार करते हैं। पूर्णिमा पर अकाल मृत्यु की वजह से भटकती आत्माओं की शांति के लिए विधि-विधान से पूजन और पिंडदान की परंपरा है।
उन्होंने बताया कि खासतौर से प्रयाग क्षेत्र में मुंडन कराने का विशेष महत्व है। प्रयाग क्षेत्र में एक केश का मुंडन कराने से अक्षय पुण्य का लाभ मिलता है। धर्म शास्त्रों में कहा गया है, ‘काशी में शरीर का त्याग कुरुक्षेत्र में दान और गया में पिंडदान का महत्व प्रयाग में मुंडन संस्कार कराए बिना अधूरा रह जाता है। प्रयाग क्षेत्र में मुंडन कराने से सारे मानसिक शारीरिक और वाचिक पाप नष्ट हो जाते हैं। अध्यक्ष ने बताया कि पितरों की आत्मा की शांति के लिए पितृ पक्ष में पितृ धाम से धरा धाम पर आए पितरों का पिंडदान किया जाता है।
संगम तट पर पिंडदान के लिए देश के कई हिस्सों से लोग पहुंचते हैं। पुराणों के अनुसार त्रिवेणी संगम पर पिंडदान और तर्पण करने से पूर्वजों की आत्माओं को शांति मिलती है। यहां तर्पण और पिंडदान किए बिना दिवंगत की आत्मा अतृप्त रहती है। पितृदोष से मुक्ति के बिना परिवार में सुख-समृद्धि नहीं आती। किसी की अकाल मृत्यु, माता-पिता व मातृ-पितृ पक्ष के किसी अन्य परिजन की मृत्यु के श्राद्ध और पिंडदान करने के ही दोष से मुक्ति मिलती है। पितृ पक्ष में पितरों का पिंडदान करना सुख एवं समृद्धि के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।
ऐसा माना जाता है कि तर्पण करने से उन्हें मुक्ति मिलती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार साधु-संत एवं बच्चों का पिंडदान नहीं किया जाता। पितर के निमित्त अर्पित किए जाने वाले पके चावल, दूध, काला तिल मिश्रित ङ्क्षपड बनाया जाता है। शास्त्रों के अनुसार मृत्यु के बाद प्रेत योनि से बचने के लिए पितृ पक्ष में तर्पण किया जाता है। धार्मिक मान्यता है कि जिस व्यक्ति को पुत्र नहीं है, पितृ ऋण से मुक्ति के लिए बेटी भी पिंडदान और तर्पण कर सकती है।
श्राद्ध की महत्ता ब्रह्म पुराण, गरूड़ पुराण, विष्णु पुराण, वराह पुराण, वायु पुराण, मत्स्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण, कर्म पुराण एवं महाभारत, मनुस्मृति और धर्म शास्त्रों में विस्तृत रूप से बताया गया है। देव, ऋषि और पितृ ऋण निवारण के लिए श्राद्ध कर्म सबसे सरल उपाय है। उन्होंने बताया कि पितृ पक्ष में पिंडदान करने से पूर्वज प्रसन्न होकर वंशजों को सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। पिंडदान नहीं करने से वंशजों को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक कष्टों का सामना करना पड़ता है।
यजमान को तर्पण की सामग्री लेकर दक्षिण की तरफ मुंह करके बैठना चाहिए। इसके बाद हाथों में जल, कुशा, अक्षत, पुष्प और काले तिल लेकर दोनों हाथ जोड़कर पितरों का ध्यान करके उन्हें आमंत्रित कर जल ग्रहण करने की प्रार्थना किया जाता है। इसके बाद जल को 11 बार अंजलि से जमीन पर गिराना चाहिए। प्रयाग धर्मसंघ के अध्यक्ष ने बताया कि श्राद्ध कर्म श्वेत वस्त्र पहनकर ही करना चाहिए। जौ के आटे या खोये से ङ्क्षपड बनाकर चावल, कच्चा सूत, फूल, चंदन, मिठाई, फल, अगरबत्ती, तिल, कुशा, जौ और दही से ङ्क्षपड का पूजन किया जाता है। पिंडदान करने के बाद पितरों की आराधना करने के बाद ङ्क्षपड को उठाकर पवित्र जल में प्रवाहित कर दिया जाता है।