धर्मलखनऊ

“गुरमति साहित्य में भगत कबीर की वाणी एवं सामाजिक समरसता” विषयक एक संगोष्ठी का आयोजन

 

लखनऊ   जून। उत्तर प्रदेश पंजाबी अकादमी की ओर से  बुधवार   जून को इन्दिरा भवन चतुर्थ तल स्थित अकादमी कार्यालय में किया गया। इसमें वक्ताओं ने कहा कि भगत कबीर की वाणी न केवल आध्यात्मिक गहराई लिए हुए है, बल्कि उसमें सामाजिक सुधार और समरसता की भी स्पष्ट झलक मिलती है। इस अवसर पर अकादमी निदेशक] ओम प्रकाश सिंह ने संगोष्ठी में उपस्थित विद्वानों का, अंगवस्त्र और स्मृति चिन्ह भेंट कर सम्मान भी किया।

संगोष्ठी में कानपुर से आमंत्रित वरिष्ठ विद्वान डॉ. दलबीर सिंह ने कहा कि गुरमति साहित्य का मूल उद्देश्य मानवता को एकता, समानता और ईश्वर की भक्ति का संदेश देना है। इस साहित्य का आधार गुरु ग्रंथ साहिब है, जिसमें केवल सिख गुरुओं की ही नहीं, बल्कि संतों और भक्त कवियों की वाणियाँ भी संकलित हैं। उन भक्तों में भगत कबीर की वाणी को विशेष स्थान प्राप्त है। उनकी वाणी न केवल आध्यात्मिक गहराई लिए हुए है, बल्कि उसमें सामाजिक सुधार और समरसता की भी स्पष्ट झलक मिलती है।

वरिष्ठ पंजाबी विद्वान, लेखक और चिन्तक नरेन्द्र सिंह मोंगा ने संगोष्ठी में कहा कि भगत कबीर, अपने समकालीन समाज के विभाजन को पाटने वाले एक आध्यात्मिक गुरु थे। “ढाई आखर प्रेम का” पढ़ा कर भगत कबीर जी भारत के सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक परिवेश में बहुत बड़ा युगांतरकारी परिवर्तन लाए। उन्होंने धार्मिक भेदभाव और घृणा को दूर करने के साथ-साथ आपसी सहयोग और भ्रातृत्व पर बल दिया। मूर्ति पूजा और अवतार वाद के स्थान पर समाज के बड़े वर्ग को निर्गुण उपासना से जोड़ा। कर्मकांडी और डरपोक मनुष्यों को क्रियाशील और निर्भीक योद्धा बनाया। मनुष्य के जीवन में मरण का भय दूर करके सांसारिक सुखों का याचक बनने के स्थान पर, परमानंद के अभिलाषी बनने का मार्ग दिखाया।

वरिष्ठ कवि त्रिलोक सिंह ने इस क्रम में कहा कि भगत कबीर की वाणी की विशेषताओं में भक्ति और निर्गुण ब्रह्म की उपासना की झलक है। कबीर निर्गुण भक्ति के प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने मूर्तिपूजा, कर्मकांड, जाति-पाति और बाह्य आडंबरों का विरोध किया। वह कहते थे कि “पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार”। भगत कबीर ने यह स्पष्ट संदेश दिया कि “कबीरा खड़ा बाजार में, सबकी मांगे खैर। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर”। इसके साथ ही संत कबीर का मानना था कि “जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान”।

 वाराणसी से आमंत्रित वरिष्ठ विद्वान अजय कुमार पाण्डेय ने संगोष्ठी में कहा कि भगत कबीर की वाणी ने गुरमति साहित्य को सामाजिक दृष्टि से समृद्ध किया है। उन्होंने न केवल भक्ति का मार्ग दिखाया, बल्कि सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार कर समरसता की नींव रखी। गुरमति साहित्य में उनकी वाणी आज भी मानवता को एकता, प्रेम और समानता का संदेश देती है, जो समय की कसौटी पर आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। भगत कबीर ने बाहरी धर्म आचरण की बजाय अंतरात्मा की शुद्धता को महत्वपूर्ण माना। यह दृष्टिकोण गुरमति सिद्धांत से मेल खाता है, जो ‘नाम सिमरन‘ और ‘सच्चे जीवन‘ को महत्व देता है।

वरिष्ठ विदुषी डॉ. रश्मि शील ने कहा कि गुरु ग्रंथ साहिब में भगत कबीर की प्रभूत वाणियाँ शामिल हैं। सिख धर्म की सार्वभौमिकता को दर्शाने के लिए गुरुओं ने कबीर सहित अन्य संतों की वाणियाँ संकलित कीं। कबीर की वाणी ने गुरमति दर्शन को और अधिक लोक-उपयोगी और सामाजिक रूप से जागरूक बनाया। कबीर की वाणी ने सिख धर्म के मूलभूत सिद्धांतों “नाम जपो, कीरत करो, वंड छको” को सामाजिक धरातल पर मजबूती दी। उन्होंने न केवल धार्मिक सहिष्णुता का मार्ग दिखाया, बल्कि व्यावहारिक जीवन में सभी को समान दृष्टि से देखने का संदेश दिया। संगोष्ठी में अरविन्द नारायण मिश्र, मीना सिंह, श्रीमती अंजू सिंह सहित विशिष्ट जन उपस्थित रहे।