अजब-गजब

कैसे 2013 में एक 22 साल के नौजवान इंदौरी ने रखी, देश में चाय-कैफे फ्रेंचाइज कल्चर की नींव, बनाया लोकल से नेशनल और फिर इंटरनेशनल चाय-कैफे ब्रांड

भारत में यदि पानी के अलावा किसी और पेय पदार्थ का सबसे अधिक सेवन किया जाता है तो वो है चाय। चाय..भारतीयों की संस्कृति से जुड़ी है और लगभग हर वर्ग-आयु के लिए पसंदीदा पेय के रूप में देखी जाती है। एक अनधिकारी फैक्ट ये भी है कि देश में सफल होने वाले 60 फीसदी से अधिक बिज़नेस आइडियाज, चाय के टपरों या दुकानों पर, चाय की चुस्कियों के साथ ही जन्म लेते हैं। हालांकि कई ग्लास में चाय ख़त्म होने के साथ ही दम तोड़ देते हैं तो कुछ दुनियाभर के लिए मिसाल बन जाते हैं। साल 2013 में ऐसा ही एक आईडिया मध्य प्रदेश के इंदौर निवासी शशांक शर्मा के दिमाग में आया। उस वक्त महज 22 वर्षीय शशांक ने चाय का स्वाद लेते हुए, चाय को ही व्यवसाय बनाने का मन बनाया और तमाम संघर्षों व चुनौतियों के बीच देश में चाय की ऐसी पहली और सबसे सफलतम फ्रेंचाइजी चेन की नींव रखी, जिसने इंदौर से निकलकर, देश और फिर विदेशों तक स्वदेशी ब्रांड की खुशबु पहुंचा दी। साथ ही देश के सैकड़ों नौजवानों को चाय-फ्रेंचाइज बिज़नेस में आने व चाय को सफल कारोबार बनाने के लिए प्रोत्साहित भी किया।

देश में चाय-कैफ़े फ्रेंचाइजी कांसेप्ट की शुरुआत करने वाले और द टी फैक्ट्री कैफ़े के मालिक शशांक शर्मा ने अपनी काबिलियत और मेहनत के दम पर, डिजिटलीकरण के आभाव और पर्याप्त संसाधनों की कमी को झेलते हुए, दस वर्षों से भी कम समय में, इंदौर से इंडिया और फिर इंटरनेशनल चाय कैफे फ्रेंचाइजी चेन ओनर बनने का सफर तय किया है। जैसा लगभग प्रत्येक बिज़नेस या स्टार्टअप के शुरूआती दौर में होता है, शशांक के लिए भी रास्ता आसान नहीं था। बकौल शशांक, “मैं नौकरी नहीं करना चाहता था और व्यवसाय में ही आगे बढ़ना था। लेकिन जॉब क्लास फैमिली बैकग्राउंड को ये समझा पाना बेहद कठिन था। न कोई प्रॉपर गाइडेंस था और न ही बिज़नेस का कोई अनुभव, बस दिमाग में एक ही चीज घूमती थी कि करना तो बिज़नेस ही है और एक ऐसा बिज़नेस जिसे ग्लोबल पहचान दिलाई जा सके। ऊपर से जब मैंने चाय को एक सुव्यवस्थित व्यावसायिक ढांचा देने का मन बनाया तो चीज़ें और अधिक मुश्किल नजर आने लगीं। मेरे इस आईडिया को खासकर मोरल सपोर्ट बहुत कम मिलता था और उसके कुछ विशेष व जायज कारण भी थे।”

लगभग एक दशक पहले जब चाय का मतलब किसी गुमटी, ठेले, टपरे या पेड़ के नीचे चल रही दुकानों से हुआ करता था। तब ढाई रुपये की कटिंग और पांच रुपये की फुल कप चाय मिला करती थी और बिल्डिंगों में बने कैफ़ेज़ को केवल हाई क्लास कॉफी मीटिंग्स की कैटेगरी में गिना जाता था। जहां किफायती दरों पर चाय पीने का आदी एक आम आदमी, ख़ास मौकों पर भी जाने से कतराता था। ऐसे माहौल में एक ऐसे कैफे को जमीन पर लाना, जहां लाइट म्यूजिक में, खूबसूरत एक्सटीरियर-इंटीरियर के साथ टेबल सिटिंग की व्यवस्था हो। चाय के साथ कुछ खाने की इच्छा जग जाये तो पिज़्ज़ा, हॉट डॉग, सैंडविच या मैगी जैसे ऑप्शंस भी तैयार मिलते हों। और सबसे महत्वपूर्ण, एक ऐसी जगह का निर्माण करना, जहां लोग, रिश्तों की नई गांठ जोड़ते हुए चाय की चुस्कियों को यादगार बना सकते हों। चुनौतियां अपार थी लेकिन शशांक का जज़्बा भी हर चुनौती को पार पाने के लिए तैयार था।

शशांक बताते हैं, “मैं शुरू से ही एक ऐसे बिज़नेस आईडिया की तलाश में था, जिसका जुड़ाव रोजमर्रा की जिंदगी से हो, ताकि हम रोजाना कुछ अर्निंग जनरेट कर सकें और फिर एक रोज चाय पीते हुए ही चाय का व्यवसाय करने का विचार सूझा, और ये सबसे सही लगा क्योंकि लोगों को खाना और पीना, दोनों ही हमेशा लगता है, फिर चाय इस कैटेगरी में सबसे फिट बैठती थी, और एक कैफे के जरिये हम चाय के साथ खाने को भी प्रमोट कर सकते थे।”

आईडिया बेहद शानदार था और प्रैक्टिक भी लग रहा था, लेकिन शशांक के सामने सबसे बड़ी चुनौती इसे लोगों तक पहुंचाने की थी, यानी प्रमोशन की और ये विज्ञापन नाम का शब्द 2012-13 के दौरान काफी खर्चीला सौदा हुआ करता था, जिसे मोटी रकम वालों के बाबत ही समझा जाता था। शशांक के अनुसार, “मेरे सामने सबसे बड़ा चैलेंज कैफे और इसके कांसेप्ट को लोगों तक पहुंचाने का था। हमारे चाय ब्रांड को प्रमोट करने के लिए सोशल मीडिया ही सबसे सटीक जरिया था, और खासकर फ्रेंचाइजी में आने का माध्यम इंटरनेट ही था, लेकिन उस वक्त सोशल मीडिया या इंटरनेट बहुत महंगा हुआ करता था। जिस प्रकार, आज 10-12 हजार में अच्छे एड्रॉयड फोन आसानी से मिल जाते हैं, उस तरह हमारे प्रमोशन के फेज में अच्छे मोबाइल फोन्स भी बड़े बजट में आते थे। इंटरनेट या डिजिटल मार्केटिंग जैसे कीवर्ड कम ही इस्तेमाल होते थे और अखबारों में इश्तिहार भी किफायती विज्ञापन तकनीक में नहीं गिना जा सकता था। हमें प्रमोशन के लिए लगभग हर स्टेप पर स्ट्रगल करना पड़ता था।”

सीमित और नियमित संसाधनों के दौर से निकलकर आज के डिजिटल वर्ल्ड में आना और इस बीच खुद को एक चुनौतीपूर्ण मार्केट प्लेस में बनाए रखना, किसी भी बिजनेस की सबसे बड़ी उपलब्धि आंकी जा सकती है। इस लिहाज से शशांक ने न केवल ये सफलता अपने नाम की बल्कि देश के सैकड़ों नौजवानों के लिए उनके चाय-कैफे कांसेप्ट को सफल बनाने में प्रमुख भूमिका भी निभाई है। वर्तमान में देश में संचालित लगभग सभी चाय कैफे, शशांक के द टी फैक्ट्री आइडिया से ही इंस्पायर्ड हैं। प्रेरणा का विषय ये भी है कि उन्होंने अपने आइडिया को अपनी शुरुआती प्लानिंग के मुताबिक ओवरसीज मार्केट में तब्दील करने में भी उपलब्धि हासिल की है। वर्तमान में दुनियाभर में द टी फैक्ट्री की 161 से अधिक चाय फ्रेंचाइजी आउटलेट्स संचालित हो रही हैं, जिनमें देश के अंदर जम्मू, बैंगलोर, हरिद्वार, होशंगाबाद, भरूच, मोहाली, अहमदाबाद, मथुरा, इंदौर और बीकानेर जैसे शहरों में द टी फैक्ट्री फ्रेंचाइजी सफल संचालन जारी है। वहीं पड़ोसी देश नेपाल समेत सऊदी, शारजहां जैसे गल्फ देशों में भी शशांक की चाय का चस्का खूब जोर मार रहा है और जल्द ही कनाडा में भी द टी फैक्ट्री कैफे अपनी नई फ्रेंचाइजी की शुरुआत करने जा रही है।

शशांक, चाय के लिए अपने कांसेप्ट को लेकर शुरू से ही क्लियर थे, एक ऐसी चीज़ जिसकी न सिर्फ देश में बल्कि दुनियाभर में सबसे अधिक डिमांड है, दूसरी तरफ इंडियन कल्चर में जहां कैफे, मीटिंग्स के लिए फेमस थे और चाय ब्रेक, सबसे ज्यादा विचारों के आदान-प्रदान के लिए, वहां क्यों न इन दोनों को एक साथ मिलाकर प्रमोट किया जाये ताकि लोगों को एक नए व अनोखे चाय कैफे कांसेप्ट से रूबरू कराने में मदद मिले। शशांक ने बिलकुल ऐसा ही किया और इसकी शुरुआत थोड़ा सिस्टेमेटिक व हाइजीन तरीके से की।

पिछले दस वर्षों के संघर्ष और सफलता के बीच, आज 32 वर्ष के हो चुके शशांक ने, द टी फैक्ट्री को क्वालिटी से कॉम्प्रोमाइज करना नहीं सिखाया। वह इसे तरक्की की सबसे कीमती तरकीब मानते हुए बताते हैं, “द टी फैक्ट्री के साथ हम आउटलेट डिजाइनिंग, प्रोडक्ट डेवलपमेंट और प्रोडक्शन ट्रेनिंग के मामले में भरपूर सहयोग प्रदान करते हैं, जिससे फ्रेंचाइजी को 360-डिग्री क्वालिटी मार्क करने में मदद मिलती है। एक फ्रेंचाइजी के रूप में द टी फक्ट्री से जुड़ना बेहद आसान और किफायती है, साथ ही यह एक वर्ल्ड क्लास एक्सपीरियंस को शेयर करना का मौका भी देता है। द टी फैक्ट्री के फ्रेंचाइजी पार्टनर्स को टी रूम मैनेजमेंट, डिमांड सप्लाई, कस्टमर सेटिस्फेक्शन, मैनपॉवर आदि पर महत्वपूर्ण ट्रेनिंग दी जाती है।”

तो इस प्रकार 2013 में शशांक शर्मा के एक ख्याल से शुरू हुए सफर ने न मजह 10 वर्षों में (कोविड-19 के दो वर्ष मिलाकर) लोकल से नेशनल और फिर इंटरनेशनल ब्रांड बनने तक का रास्ता तय किया बल्कि अन्य टी-कैफेज के अस्तित्व के प्रणेता भी बने। निजी तौर पर शशांक टी कैफे फ्रेंचाइजी का सबसे बड़ा प्लेयर होने के नाते देश के लगभग सभी नामी टी कैफेज का रोडमैप तैयार कर चुके हैं, जिसे वह अपनी जिम्मेदारी का हिस्सा समझते हैं।

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