‘घर से बेटी उठवाकर मुस्लिम बुड्ढे से ब्याह दी, पुलिस बोली-शुक्र मनाओ, रेप के बाद रोड किनारे फेंकी नहीं मिली’- पाकिस्तान से आए हिंदुओं का दर्द

‘दामाद ने आवाज लगाई- अमीना! वो हमारी बेटी को बुला रहा था. वो बेटी, जो कुछ दिन पहले आस्था थी. बामुश्किल 16 साल की हमारी गुड़िया 70 पार के आदमी से ब्याह दी गई. हम पाकिस्तान में बसे हिंदू थे. तिसपर गरीब. हमारी बेटियां सड़क किनारे लगा वो पेड़ हैं, जिनपर कोई भी अपना नाम खोद दे.’

सताई हुई वो कौम है, जिसका जिक्र कम ही होता है. भूख. मारपीट. बीमारियां. जैसे कोई खाज छिपाता हो, वैसे अपनी पहचान और सबसे ज्यादा- अपनी जवान होती बेटियों को छिपाते लोग.

आठेक बरस की होते ही बच्चियों का स्कूल छुड़ा दिया जाता है. वे घर बैठ जाती हैं. इसके बाद बाहर की दुनिया से उनकी जान-पहचान उतनी ही रह जाती है, जितनी आंगन से गुजरते हवाई जहाज की. डर तब भी खत्म नहीं होता.

पाकिस्तान में हिंदू लड़की होना अपने-आप में एक हादसा है. वो हादसा, जो किसी चूक का इंतजार नहीं करता. वो पलकों के झपकने की तरह कभी भी हो सकता है.

नवंबर 2021 में पाकिस्तान में माइनॉरिटी पर काम करने वाली संस्था ऑल पार्टी पार्लियामेंट्री ग्रुप (APPG) ने एक रिपोर्ट में बताया कि हर साल कम से कम 1,000 हिंदू लड़कियों का धर्म बदलकर उनकी शादी करा दी जाती है. 12 से 25 साल की ये बच्चियां-औरतें अक्सर अपने से दोगुने-तिगुने उम्र के आदमियों से जबरन ब्याह दी जाती हैं. न मानने पर धमकी, रेप और मारपीट आम बात है.

अमीना से सीधे-सीधे मेरी मुलाकात नहीं हुई लेकिन उसके माता-पिता मिले. जोधपुर के उजड़े हुए रिफ्यूजी कैंप में. कई बार रिक्वेस्ट के बाद पिता बोलने को राजी हुए. चेहरा, आवाज और पहचान बदले जाने की शर्त पर. मां टेंट के एक कोने में सर्द-सख्त आंखों से देखती हुई. मानो कहती हो- तुम जैसी लड़कियां कैसे समझेंगी हम जैसों का दर्द!

जाते हुए वे कह भी देती हैं- ‘जैसे तुम फिर रही हो, सिर उघाड़े. अनजान शहर में, अनजान लोगों की कहानियां सुनती हुईं, पाकिस्तान की लड़कियों के लिए ये भी एक कहानी है. वो कहानी, जो वे कभी सुन तक नहीं पातीं, ऐसे जीना तो दूर की बात!’ आवाज जोधपुरिया सूरज की गर्मी में तपी हुई.

पाकिस्तान के सिंध में रहते थे हम. जगह- मीरपुर खास. दो साल पहले की गर्मियां थीं, जब आस्था घर से गायब हो गई. मैं खेत से मजदूरी करके लौटा था. उसकी मां बाकी औरतों के साथ बाजार गई थी. लौटे तो आस्था नहीं थी.

हमें अंदाजा था. अंदाजा था कि ऐसा होगा. पिता बोलते हुए लड़खड़ाते हैं, फिर संभलकर कहने लगते हैं- सिंध में ये नया नहीं. रातोरात बेटियां घर से गायब हो जाती हैं.

खोजढूंढ की तो पता लगा कि बेटी पड़ोस के गांव में रखी गई है. रपट लिखानी चाही, लेकिन थानेदार ने दुत्कार दिया. वहां से निकलते हुए थोड़े नरमदिल पुलिसवाले ने ‘तसल्ली’ दी- शुक्र मनाओ, लड़की रेप के बाद सड़क किनारे नहीं मिली. भूरी आंखोंवाला वही पुलिसवाला हमें अपनी बेटी के नए घर लेकर गया.

बैठक में मैं और इसकी मां इंतजार कर रहे थे, जब आस्था का पति आया. उम्र, मुझसे भी 15-20 साल ज्यादा. शरीर पर सिलवटें. पोपली मुस्कान से बोला- ‘अमीना, अपनी अम्मी को भीतर ले जाओ’.

आस्था पढ़ने में तेज थी. कहती कि पुलिसवाली बनेगी. 10 साल की हुई, जब हमने स्कूल छुड़ा दिया. पहले वो बहुत रोती. फिर संभल गई. जानती थी कि उसकी बाकी सहेलियां उससे भी पहले घर बैठ चुकी हैं. वजह भी वो समझने लगी थी. गुणा-गणित करने वाली मेरी बेटी अब भात-रसोई सीखने लगी.

हर साल हजार से ज्यादा हिंदू लड़कियों का धर्म परिवर्तन कर जबरन शादी करा दी जाती है. सांकेतिक फोटो

हम इंतजार कर रहे थे कि थोड़ी बड़ी होते ही उसका लगन कर दें. लड़का भी देख रखा था. सिंध का ही. 12वीं तक पढ़ा हुआ. एक दुकान में हिसाब लिखने का काम करता.

उसकी मां औरतों के साथ बाजार गई थी, जब हादसा हुआ.

16 साल की हमारी बेटी 70 पार के आदमी से ब्याह दी, पुलिस तसल्ली देती- शुक्र मनाओ, रेप नहीं हुआ

वो आई. काले बुरके में लिपटी हुई. मेरी गुड़िया, जिसके लिए हम लाल-पीले-नीले रंग के घाघरे खरीदते रहे, उसने सिर से पांव तक काला रंग ओढ़ रखा था. नई ब्याहता. शुरू में हमारे यहां काले रंग का तिनका भी पड़ जाए तो अपशकुन मानते हैं. अपशगुन ही तो था ये.

सिंधी मिली हिंदी में पिता जब बता रहे हैं, मैं मां को देख रही हूं.

लू के थपेड़ों के बीच ठंडी-बेजान आंखें अचानक चौकन्नी हो उठती हैं. अब बात का सिरा मां के पास है. वे टूटी-फूटी भाषा में जो कहती हैं, मामूली हेरफेर के साथ उसे जस का तस लिख रही हूं.

बाजार से लौटी तो ये बदहवास खड़े थे. आस्था कहां है? सवाल दन्न से छाती पर लगा. वो कहां जाएगी! अकेली. इस वक्त. साल में तीन-चार बार बाजार-मंदिर निकलती तो हम दोनों साथ रहते. पास-पड़ोस कहीं जाना-आना है नहीं. मैं अंदर गई. दो कमरों का घर. तब भी बार-बार देखती.

ये बौखलाए हुए यहां-वहां पूछ रहे थे, जब किसी ने टहोका लगाया. कहीं आस्था को भी तो…!

बात अधूरी थी. कई बातें अपने अधूरेपन में भी सबसे ज्यादा डर दे जाती हैं. अधूरा शक हवा में नंगी तलवार की तरह बरस रहा था.

हमारी कौम की (सिंध में रहते भील, माली और मेघवाल समुदाय) औरतें जमा होने लगीं. उस रात, और उसके अगले दिन भी घर में चूल्हा नहीं जला.

मातम के उन दिनों में हमें आस्था का पता लग चुका था.

नाम पुकारने पर जो औरत आई, वो कोई और ही थी. काले बुरके से दो आंखें झांकती हुई. आकर चुपचाप खड़ी हो गई. आस्था होती तो धप्प से बैठ जाती. या अम्मा बोलकर रो देती, जैसे डरने पर रोती थी. या फिर खुशी से गले में बांहें डाल देती. ये तो न चीखी, न रोई, न कुछ बोली.

‘अमीना, अपनी अम्मी को अंदर ले जाओ’- दामाद दोबारा कह रहा था.

इस बार वो हिली और पास आकर हाथ पकड़ लिया. ठंडे हाथ, जैसे बर्फ की सिल्ली छूकर निकले हों. पहचानी हुई छुअन. आंखों में डोलती पुतलियां और उनके पीछे का पानी भी जाना-पहचाना. वो मेरी बेटी थी.

गलियारा पार करते हुए कई कमरे बीतते रहे. आखिर में उसका कमरा था. दीवारों पर प्लास्टर से ज्यादा सीलन का रंग दिखता हुआ. ऊंचा-संकरा रोशनदान.दो जनों के सो सकने लायक पलंग. और बेंत की कुर्सी. यही सामान था.

खूंटी पर दो जोड़ा सलवार-कमीज टंगी हुई. कोने में रखी एक टूटी, दांतेदार कंघी.

कोई सूटकेस नहीं, जो नई दुनिया में अपने बसने का इंतजार कर रहा हो. जेवर या चूड़ियों का कोई बक्सा नहीं. कोई आईना नहीं, जिसे देखते हुए नई दुल्हन थोड़ा बन-ठन जाए.

दरवाजे पर ही आस्था भी ठिठकी खड़ी थी, मानो मेरी नजर से अपना घर देख रही हो. फिर फफककर रो पड़ी. इतने में दामाद आ गया. पीछे नाश्ते की तश्तरी लिए औरतें.

शादी के बाद यही हमारी पहली मुलाकात थी.

आस्था के माता-पिता सामने हैं. बामुश्किल 50 के होंगे, लेकिन आंखों के नीचे उम्र की पोटलियां जमी हुईं. मां बोलते हुए एक बार भी रोती नहीं. पिता गुस्से में मुट्ठियां नहीं भींचता.

वे अपने हिस्से के आंसू पाकिस्तान छोड़ आए. बेटी के नाम के साथ-साथ.

‘एकाध बार आस्था को टटोलते हुए भाग चलने को कहा, लेकिन वो अमीना बनी रही.’ मां याद करती हैं. ‘जब भी उसके घर गए, कोई न कोई आसपास मंडराता रहा. यहां आने से पहले मिलने गई तो दो-तीन गहने जो ब्याह के नाम पर जोड़ रखे थे, वो देने चाहे. आस्था ने इशारे से ही मना कर दिया. कहा, ‘तुम्हारे काम आएंगे’. चाव से चुने उसके कपड़े पड़ोस में दे आई. यहां लाती तो भार रहता.’

शरणार्थी बस्ती के बाकी परिवारों में जहां औसतन पांच –छह बच्चे हैं, आस्था अपने घर की अकेली औलाद थी. निकलते हुए मां कहती हैं- ‘शिवजी की मनौती मांगी थी. हरिद्वार आने की. अब जब आए, तो गुड़िया ही छूट गई.’

वहां से निकलकर भागचंद भील से मिलती हूं, जो हिंदू शरणार्थियों पर काम कर रही संस्था निमित्तेकम में जोधपुर-जैसलमेर कोऑर्डिनेटर हैं. वे कहते हैं- यहां पहुंचे हर घर की यही कहानी है. कोई बेटी गंवाकर पहुंचा, कोई गंवा देने के डर से. सिंध में रहता हर बेटीवाला परिवार बारूदी जमीन पर रहता है. एक गलत पैर और सब चीथड़ा हो जाएगा.

आसपास तितलियों की तरह फुर्र-फर्र भागती बच्चियों को दिखाते हुए वे कहते हैं- भले इनके पास छत नहीं. खाने को रोटी नहीं, लेकिन आजादी तो है. सरहद पार कोई बच्ची ये सोच भी नहीं सकती. यही वजह है कि लगातार जत्थे के जत्थे हिंदू भारत आ रहे हैं.

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